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________________ २२, वर्ष ४६, कि.१ अनेकान्त साधु दीक्षा के कर्तव्य-साधु को बिल्कुल वस्त्रहीन नाश नही किया जा सकता है। यह निर्विवाद सिद्ध है। नग्न रहना चाहिए, नियमपूर्वक एक दिन में एक बार श्वेताम्बरों के उववाई सूत्र में प्रश्न २१ मे उल्लेख है कि अन्न ग्रहण करना चाहिए, व एक स्थान पर खड़े रहकर दिगम्बरत्व से मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा ही उत्तराध्ययन ही लेना चाहिए। तीनों बातो का समर्थन श्वेताम्बर मे भी लिखा है। शरीर पर से वस्त्र उतार देने मात्र का शास्त्रो से भी पूरा होता हैं । उमास्वामी विरचित तत्वार्थ- ही नाम दिगम्बर नही है। वस्त्र के साथ-साथ संसार के सूत्र महाशास्त्र जिसको प्रत्येक जैन पूर्णरूप से प्रमाणित सभी पदार्थों से निस्पृह होकर रहना व अपने कषाय भाव मानता है। इसमे बाईस परिषहो के नामो का उल्लेख को दूर करके सर्वत्र ही समताभाव को स्वीकार करना कारक सूत्र मे छठा 'नग्न परिषह' लिखा हआ है। अर्थात दिगम्बरस्व होता है। इसे प्राप्त करनेवाला ही सच्चा वस्त्ररहित नग्न रहकर भी निविकार रहना जो प्रत्येक साधु होता है तभी वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मुनि के लिए आवश्यक है। मुनियों के कुछ महत्वपूर्ण भेद-मुनियो मे प्रधान साधु का दूसरा कर्तव्य मुनि का दिन में एक बार ही दो तरह के होते है। एक तो नतन दीक्षा देकर असंयमी भाजन करना हादगम्बर शास्त्रा के आतारक्त श्वताम्बर को सयमी बनाने वाले होते हैं । इन्हें गुरु कहते हैं। दूसरे के आगम ग्रन्थ उत्तराध्ययन के समाचारी नामक २६व वे जो सर्वसाधारण मूनि किसी कारणवश अपने गुरु के अध्ययन में लिखा है। रुचिकर न होने पर अपने व्रतो मे किसी प्रकार की भल दिवसस्स चऊरो भागे भिक्ख कुजा विपक्खयो। बन जाने पर जिसके आगे प्रायश्चित लेकर उस मल को तवोउत्तर गुणे कुज्जा दिण भागेसु च उसु वि ।। ठीक कर लेता है । इन्हे 'निर्यापक प्राचार्य' कहते हैं। पढम पोरसिसमझायं वीय झाण झिणपई। तइयाये भिक्खायरि य पुणो च उत्थी ये सज्झाय ॥ मनुष्य की चितवृत्ति चचल होती है । न मालूम किस अर्थात ज्ञानी मनि दिन के ४ भाग करे पहिले म समय मे मन का घुमाव किधर हो जाए। ऐसे अवसर पर का स्वाध्याय करने में, दूसरे को ध्यान करने मे, तीसरे गिरते हुए मन को सहारा देकर स्थिर करने के लिए सहको भिक्षावृत्ति में व चौथे भाग को पुन: स्वाध्याय करने योगियों की आवश्यकता होती है। इसीलिए अधिकतर मे व्यतीत करे। दिन-रात के पहन ना आत्मायें साधक लोग गुरुकुल में सत्ममागम में ही रहते केवल दिन का तीसरा पहर बताया है जिसम वह भिक्षा है। ऐसे मुनिया का है। ऐसे मुनियो को 'अन्तेवासी स्थविरकल्पी मुनि' कहा के लिए शहर मे भ्रमण करके उसी एक प्रहर काल के ___ जाता है। जो मुनि सुदृढ अध्यवसायी होते है जिनको समा'त होने से पहले भोजन कर चके और पुन: आकर अपने आत्मबल पर पूर्ण भरोसा है, घोर से घोर उपसर्गाअपने स्वाध्याय स्थान में स्वाध्याय करने में लग जावे ।। दिक के आने पर भी जो सुमेरु के समान अविचल रहने इस सबसे स्पष्ट है कि मुनि २४ घण्टो मे दिन मे एक वाला है जिनके आवश्यक कार्यों में कभी भी किसी प्रकार बार ही भोजन करे। की कमी नही रहती है ऐसे महामुनि जहां कही भी स्वतत्र मुनि एक ही स्थान पर खड़े-खडे ही भोजन लेते है। रूप से विचरण करते हुए रह सकते हैं इन्हें एकाकी या दिगम्बर जैनाचार्यों के ही नही श्वेताम्बर मान्य जैनाचार्यों जिनकल्पो मुनि के नाम से पुकारा जाता है। के लिखे हुए इतिहास रूप कथा ग्रन्थो मे किसी भी जगह सम्पूर्ण प्रकार की वाह्य प्रवृत्ति से दूर होकर जान ऐसा नही है कि किसी जैन मुनि ने अनेक घरों से थोड़ा- दर्शनात्मक आत्मा मात्र मे तल्लीन रहना ही वास्तविक थोड़ा अन्न लेकर कही अन्यत्र एक जगह बैठकर खाया श्रमणत्व है । हिंसा, मठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच हो। सभी उपाख्यानो में ऐसा ही वर्णन मिलता है कि पापो से साधक को बचकर रहना चाहिए। साधारण रूप अमुक मुनि ने अमुक श्रावक के यहा आहार लिया। से किसी के प्राणों का घात करना, उसे मारना, पीटना करपात्र योगी नग्न दिगम्बर साधु बने बिना को का वगैरह हिंसा ही है। किसी के साथ धोखेबाजी की बात
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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