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________________ प्रवचनसार में णित "चारित्राधिकार" D कु. शकुन्तला जैन सनातन जैन परम्परा में कलिकाल सर्वज्ञ भगवान इस शुभ कार्य के लिए आप सब मुझे आज्ञा प्रदान करेंगे, कुन्दकुन्दाचार्य का एक विशिष्ट स्थान रहा है। उनके ऐसी मैं आशा करता है। रचित समयसार, पचास्तिकाय, प्रवचनसार, परमागमो इस प्रकार नम्रता व भद्रतापूर्वक सब कुटुम्बियो से मे जिनवाणी का सार प्राप्त होता है। 'प्रवचनसार' मे बिदा होकर किसी सुयोग्य धर्माचार्य के पास पहुंचे जो जिनवाणी अर्थात् जिनप्रवचन का सार संग्रहीत किया गया रत्नत्रय का धारक हो, अनशनादि तप करने में भी कुशल है। कुन्दकुन्दप्रणोत प्रवचनमार पर अमतचन्द्राचार्य एवं का हो, कुल रूप अवस्था व दीक्षा में भी अपना बर्चस्व रखता आचार्य द्वारा रचित प्रवचनसार के अतर्गत जैनधर्म से सब- हो । जिसको अन्य साधु लोग अपना बड़ा समझकर उसको आज्ञा मे रहने को पसन्द कर रहे हों। उनसे प्रार्थना करे धित विभिन्न पओ, सभ्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन व सम्यग्चारित्र कि मुझे मी आप अपने चरणो का सेवक बना लीजिए। के विषय में हमे अमूल्य सामग्री प्राप्त होती है। इन लेकिन ये दोनो विषय साधक सयमी बनने वाले जीव के विभिन्न पक्षों को मात्र लेख के रूप मे समग्र रूप में प्रस्तुत लिए सर्वथा अनिवार्य नही है। समय पर इसमे अनेक करना एक जटिल कार्य है। अतः प्रवचनसार के एक पक्ष - 'चारित्राधिकार' को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। अपवाद भी आये हुए हैं। फिर भी सर्वसाधारण लोगों ज्ञान आत्मा का अनन्य गुण है। ज्ञान की सार्थकता को इन दोनों ही नियमो का ध्यान रखना परमा पवित्र आचरण के द्वारा होती है। आचार्य महाराज है । सयम धारण करने वाले मनुष्य को गुरु के पास जाकर प्रत्येक ज्ञानी मनुष्य को चारित्र धारण करने की प्रेरणा प्रार्थना करनी चाहिए कि "हे गरुदेव ! इस स्वार देते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य अपने दुःख को दूर में रहकर भी मैं किसी का नही हैं और न कोई अन्य मेरा करना चाहता है तो उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व है। भगवन् ! अब मुझे भी जैनेश्वरी दीक्षा दीजिये जो सम्यग्चारित्र के धारक सिद्धो व साधु को नमस्कार करके बारम्भ और परिग्रह से रहित होती है । जो अपने उपयोग चारित्र को धारण करे। यह दुःख दूर करने का एक मात्र और योग दोनो को शुद्ध बनाते हुए समता को उत्पन्न करने वाली है। हिसा आदि का सर्वथा अभाव होकर उपाय है। चारित्र धारण करने के उपाय-प्रवचनसार के जिसमे बाह्याडम्बर भी बिल्कुल नहीं होता है । इस शरीर अनसार जिसको चारित्र धारण करना हो वह सबसे पहले मे भी निस्पृहता को प्रगट करने वाला के शन्लुचन किया जिन के सम्पर्क में रहकर अपना अब तक का जीवन बिताया जाता है। जिसमे परावलम्बन का नाममात्र भी न होकर है उन बन्धुओं से आज्ञा लेवें कि मैं आप लोगों के साथ अपने भरोसे पर ही खड़ा हग जाता है।" आज तक बड़े सतोषपूर्वक रहा, आप लोगों ने मेरे जीवनो- ऐसा निवेदन करके गुरु के सम्मुख पहिले तो पूर्व के पयोगी कार्यों में सहायता पहुंचाई, मेरा आदर किया। लिए हुए अपने सम्पूर्ण दुष्कृत्यो को स्पष्ट करते हुए उन इसके लिए मैं आपका बड़ा आमार मानता हूं, अब आप पर पश्चाताप करे फिर गुरुदेव जो भी प्रादे माने शांत जीवन बिताने की आवश्यकता प्रतीत हुई है कार्य बतावें, उसे ध्यानपूर्वक सुने व गुरुजी के आशीर्वादअतः मैं गुरुदेव के पास जाकर संयमी बनना चाहता हू पूर्वक उसे पालन करने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ बनना चाहिए
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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