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________________ प्रवचनसार में वरिणत 'चारित्राधिकार' का विचार करते हुए उचित कार्य करने में ही अग्रसर द्वारा परिशुद्ध होकर अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और होना चाहता है, जो गृहस्थ की झझट से उन्मुक्त होकर सम्यग्चारित्र को पूर्णतया प्राप्त हो जाने का नाम ही या तो साधु दशा को ही सफल मानकर उसको धारण सुक्ति है। इसको प्राप्त कर लेने वाले सिद्ध परमात्मा करना चाहता है, ऐसा जीव यद्यपि कुछ समय के लिए कहलाते हैं। संसार मे है परन्तु वह अवश्य मुक्ति प्राप्त करनेवाला है, इस प्रकार मुनि के विमिन्न नियम, कर्तव्य और भेद मुक्ति उससे दूर नहीं है। के साथ ही इनका पालन करने वाले महाराज, ज्ञानी जब यह बाह्य परिग्रह की तरह अभ्यन्तर परिग्रह से व्यक्ति को चरित्रधारण की प्रेरणा किस प्रकार देते हैं भी सर्वथा उन्मुक्त हो जावेगा, बाह्य परिग्रह का परित्याग इसका विषद वर्णन हमे प्रवचनसार के 'चारिवाधिकार' कर देने पर भी चिन्तन मास के कारण से उन्ही बाह्य के भाग से प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ की सफलता के बातों की तरफ दौड़ लगाने के लिए परिणमनशील अपने विषय मे प्रशंमापूर्वक ग्रन्थ कार कहते हैं कि जो भी व्यक्ति मन को एकान्त आत्म-तल्लीन कर लेगा, राग-द्वेष से श्रद्धापूर्वक इस शास्त्र को पढेगा वह जैनागम के सारभूत सर्वपा रहित शुद्ध हो जायेगा तब पुनर्जन्म भी धारण नही तत्वज्ञान को प्राप्त कर श्रावक या साधु के आचरण को करेगा। अपने आपको बिल्कुल राग-द्वेष से रहित शुद्ध स्वीकार करके, उसके द्वारा शीघ्र ही परमपद को प्राप्त बना लेना ही मुक्ति का साक्षात् उपाय है । इस उपाय के कर सकेगा। ६, श्रीकृष्ण कालोनी, उज्जन सुण्गहरे तरुहिढे उज्जारणे तह मसाणवासे वा। गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ॥४२॥ अर्थ-सूनां घर, वृक्ष का मूल कोटर, उद्यान वन, मसाण भूमि, गिरि की गुफा, गिरि का शिखर, भयानक वन अथवा वस्तिका, इनविर्षे दीक्षा सहित मुनि तिष्ठे। सत्तमित्ते य समा पसंमरिणद्दालद्धिलद्धि समा। सणकरणए समभावा पन्जा एरिसा भरिणया ॥४७॥ अर्थ-बहुरि जामैं शत्रु मित्रविर्षे समभाव है, बहुरि प्रशंसा निंदा विष, लाभ अलाभविर्षे समभाव है बहुरि तृणकंचन विर्षे समभाव है ऐसी प्रव्रज्या कही है। जहजायरूवसरिसा अवलं वियभुय रिगराउहा संता। परकियरिगलयरिणवासा पवज्जा एरिसा भरिया ॥५१॥ अर्थ- कैसी है प्रव्रज्या - यथाजातरूपसदशी कहिए जैसा जन्म्यां वालकका नग्न रूप होय तैसा नग्न रूप जामैं है, बहरि कैसी है अवलंबित भुजा कहिये लंबायमान किये हैं भुजा जामैं बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सर्ग खड़ा रहनां जाम होय है, बहुरि कंसी है निरायुधा कहिए आयुधनिकरि रहित है, बहुरि शांता कहिए अंग उपांग के विकार रहित शांत मुद्रा जामैं होय है, बहुरि कैसी है परकृतनिलयनिवासा कहिए परका किया निलय जो वस्तिका आदिक तामैं है निवास जाम आपकू कृत कारित अनुमोदन मन वचन काय करि जामैं दोष न लाग्या होय ऐसी परका करी वस्तिका आदिकमै वसनां होय है ऐसी प्रव्रज्या कही है।
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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