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एक ही ग्रन्थ में एक शब्द को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न रूपों में दिया गया है । वे सभी ठीक हैं । उनका वही रूप रहना चाहिए । व्याकरण की दृष्टि से आगम के मूल शब्दों को सुधार के नाम पर बदलना, उसमें एकरूपता लाना न तो किसी के अधिकार की परिधि में है और न ही उसका कोई औचित्य है । इससे आगम विरूप होते हैं और उनकी प्राचीनता नष्ट होती है। यदि पाठ भेद किया जाना आवश्यक प्रतीत हो तो उसे पादटिप्पण में दिया जाना चाहिए क्योंकि यही संपादन की अंतरराष्ट्रीय परम्परा है । यदि मूल आगम में किसी प्रकार से बदलाव की प्रथा प्रारम्भ हो गयी तो कालान्तर में उनका लोप हो जायेगा ।
आचार्य श्री विद्यानन्द जी का अभिमत ___ आगम बदलाव की भर्त्सना के सम्बन्ध में स्वयं मुनि श्री विद्यानन्द जी के 1964 में व्यक्त उदगार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं :
" मनुष्य अल्पज्ञता तथा कषाय भाव के कारण अपने कलुषित एवं कल्पित निराधार भाव जब दूसरों के मस्तिष्क में उतारना चाहता है, जब मिथ्या अभिमान उसको विकृत साहित्य लिखने की प्रेरणा करता है तब उस दुराभिमान और दुराग्रह से लिखा गया ग्रन्थ या साहित्य उसकी चिरस्थायी अपकीर्ति का कारण तो बनता ही है, किन्तु उसके साथ जन-साधारण को भी कुछ समय के लिए भ्रम में डाल कर श्रद्धालु समाज में कलह और भ्रम का बीज बो देता है" ।
(दि. जैन साहित्य में विकारप्राक दो शब्द, पृष्ठ 7 से उद्धृत) आगम बदलाव से हानि
पण्डित बलभद्र जी के कथनानुसार आचार्य विद्यानन्द जी महाराज ने उन्हें आदेश दिया था कि अभी तक अर्थ मूल प्राकृत गाथाओं का