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________________ परिग्रह : मूछाभाव २६ हिंसा नही है अपितु हिंसा मे कारण है। इसीलिए आगे निर्देश किया है, वे सभी कारण परिग्रह निवृत्तिरूप हैं, चलकर इन्ही आचार्य ने कहा है-- किसी मे भी हिंसा, झूठ, चोरी जैसे किसी परिग्रह का सत्य 'सूक्ष्मापि न खलु हिंसा हरवस्तु निवधना भवति पंसः।' नही। तथाहि-'स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा-परीषह जय 'आरम्यकर्तृ म कृतापि फलति हिमानृभावेन ।' चारित्रः । 'तपसा निर्जरा च ।' गुप्ति समति, धर्म, अनु. 'यस्मात्सकषाय: सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् ।' प्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से सवर होता है और तप यत्खलुकषाययोगात् प्राणाना द्रव्य भावरूपाणाम् ।' से सवर और निर्जरा दोनो होते है। उक्त क्रियाओ मे -पुरुषा० प्रवृत्ति भी निवृत्ति का स्थान रखती है--सभी में परहिंसा पर-वस्तु ( रागादि) के कारणो से होती है हिंसा परिग्रह त्याग और स्व मे आना है। तथाहिकषाय भावो के अनुसार होती है। कषाय के योग से द्रव्य- गुप्ति--- 'यत. ससारकारणादात्मनो गोपन सा गुप्तिः।' भावरूप प्राणो का घात होता है। और सवषाय जीव -रा० वा० २१ हिंसक (हिंसा में करने वाला) होता है। जिसके बल से ससार के कारणो से आत्मा का गोपन जो लोग ध्यान के विषय में किसी विन्दु पर मन को (रक्षण) होता है वह गुप्ति है। लगाने की बात करते है उममे भी आस्रव भाव होता है मनोगप्ति- 'जो रागादि णियत्ती मणस्स जाणाहि तं फिर जो दीर्घ संसारी है, ऐसे लोगो नमो ध्यान-प्रचार के मणोगुत्ती।' बहाने आज देश-विदेशो में भी काफी हलचल मचा रखी वचोगुप्ति-'अलियादिणियत्ती वा मौण वा होइ वचिगती।' है, जगह-जगह ध्यानकेन्द्रो की स्थापना की है । वहा जाति -नि० सा. ६६ के इच्छुक जनसाधारण भन शान्ति हेतु जाते है। पर कायगुप्ति-'काय किरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगेवहाँ वे वह कुछ नहीं पा सकते जा उन्हे निन, जैनी या गुत्ती।' -नि० सा० ७८ अपरिग्रही होने पर--सब ओर से मन हटाने पर मिल समिति---'निज परम तत्त्व निरत सहज परमबोधादि परम मता यहां प्रात्मा का प्रात्मदर्शन मिलेगा और वहा धर्माणा सहति समिति । -नि सा.ता.व. ६१ उन्हे परिग्रह रूपी पर-विकारी भाव मिनेगे। फिर चाहे वे 'स्व स्वरूपे सम्यगिता गतः परिणत. समितिः।' विकारी भाव व्यवहारी दृष्टि मे- कर्मशृग्वलारूप मे 'शुभ' --प्र० सा० ता०व० २४० नाम से ही प्रसिद्ध क्यों न हो। वास्तव में तो वे बधरूप 'अनत ज्ञानादि स्वभावे निजात्मनि सम सम्यक होने से अशुभ हो है; कहा भी है-- समस्तरागादिविभावपरित्यागेन तल्लीनतच्चितन तन्मय'कम्ममसुह कुसील मुहकम्म चावि जाणह कुसोल। त्वेन अयन गमन परिणमन समिति।' -प्र. स. टी. ३५ कह त होइ सुसोल जे ससारं पवेसेदि॥ धर्म-भाउ विसुद्धण अप्पणउ धम्मभणेविण लह।' --समयसार ४.११४५ -१० प्र० मू. २/६८ अशुभ कम कुशोल--बुरा है और शुभ कर्म सुशील 'मिथ्यात्व रागादि ससरणरूपेण भावससारेप्राणिनअच्छा है, ऐसा तुम जानते हो; किन्तु जो कर्म जीव को मुदत्य निविकारशुद्धचतन्य धरतीति धम.।' -प्र. सा. ता०व० ७६१६ ससार मे प्रवेश कराता है, वह किस प्रकार सुशील सद्दष्टिज्ञानवत्तानि धर्मम् । -रत्न. ३ अच्छा हो सकता है ? अर्थात् अच्छा नहीं हो सकता। 'चारित्त खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिहिट्रो। उक्त प्रसग से तात्पर्य एमा ही है कि यदि जीव परि- मोहक्वाह विहीणा परिणामो अप्पणी हि समो॥' ग्रह-आस्रव जनक क्रिया को त्याग कर मवर निर्जरा में -प्र० सा०७ पानशील-सभी प्रकार विकल्पो को छोड़कर स्वम अनुप्रेक्षा-क.म्मणिज्जरणमाठ-मज्जाणगयस्स सुदणाआए तो इसे जिन या जैन बनन म दर न लगे। आचार्यों न णस्स परिमलणमणपेक्खगा नाम।' ध.६,४,१,५५ स्व में आने के मार्ग रूप संवर निर्जरा के जिन कारणो का (शेष पृष्ठ १२ पर)
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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