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________________ के.ल में जैन स्थापत्य और कला cultural sequence and matetial content." विचर जिले में एक निरुवलयनल्लुर भी है। इस कारण वास्तव में, यदि खोज की जाए तो जैनधर्म सबधी अनेक इस मन्दिर का निर्माण ८७० ईस्वी के बाद हुआ और स्थल प्रकाश में आ सकेगे। शिलप्पादिकारम् की रचना किसी ने इलगो अडिकल के अब गुफाओ से निकल कर मन्दिरो की ओर। नाम से कर दी ऐमा निष्कर्ष उन्होने निकाला है किन्तु एक यह कहा जाता है कि केरल मे जैन निर्मित मन्दिरो निष्पक्ष इतिहासकार की भौति उन्होने साहित्यिक एव का अस्तित्व नही पाया जाता। किन्तु यह कथन भी अन्य साक्ष्य के लिए गुंजाइश छोड दी है। खेद है कि इस उचित नहीं जान पडता। केरल मे जैन मन्दिर होने का सबध मे कार्य नहीं हुआ। प्रो० चम्पकलक्ष्मी इस मत से सकेत इलगो अडिगल के तमिल महाकाव्य शिलप्पादि- सहमत नहीं है। उनका मत है कि आठवी सदी मे तो से मिलता है। इसमे जैन श्राविका कण्णगी और कोवलन जैनधर्म को कठिन धार्मिक सघर्ष से गुजरना पड़ा था। की दुखभरी कथा वरिणत है। अडिगल (आचार्य) युवराज उस समय ऐसे आदर्श मदिर का निमाण सभव दिखाई पाद थे चिन्तु अपने बड़े भाई के पक्ष में राज्य का त्याग नहीं देता। कर सन्यामी हो गए थे। वे घेर राजधानी कजी के इलगो अडिकल के बड़े भाई चेर शासक चेन कुवन किले के पूर्वी द्वार के समीप स्थित कुणवायिलकोट्रम नामक (१२५ ईस्वी) ने कण्णणी की प्रतिमा स्थापित करन के जैन मन्दिर में रहा करते थे। इस मन्दिर को 'पुरनिल जिए एक मन्दिर बनवाया था जिसके उत्सव में लका का कोट्टम्' अर्थात् पुर के बाहर का मन्दिर कहा जाने लगा शासक गजबाहु और मालवा का राजा भी सम्मिलित हआ और इससे बाद क शिव मन्दिरो को ऊरकोटम' या पूर था। उस समय जैन धर्मावलम्बी भद्र चष्टन मालवा का के अन्दर का मन्दिर कहा जाने लगा। यह मन्दिर केरल शासक था। उसका राज्य पूना तक फैला हुआ था और के अन्य मन्दिरी का नियत्रण करता था और केरल में उसने मालवाधिपति को उपाधि धारण की थी। लका मे मन्दिरो क निर्माण के लिए आदर्श था ऐसा चार-पाच दूसरा गजबाहु बारहवी सदी में हुआ है। इसलिए इलगो मन्दिरो के शिलालेखो से ज्ञात होता है। इसका उल्लेख की रचना ईसा की दूसरी सदो को है यह स्वीकार किया केरल के अनेक काव्यो विशेषकर सन्देश काव्यो यथा कोक जा सकता है। यह मन्दिर था कम से कम उसका भाग सन्देश, शुक सन्देश आदि मे थी उपलब्ध है। इसे तककणा- प्राज भी काडगललूर म विद्यमान है यद्यपि उसका अनेक मतिलकम् भी कहा जाता था। चौदहवीं सदी तक यह बार जीर्णोद्धार हुआ है ऐसा जान पडता है। आजकल वह जैन मन्दिर रहा ऐसा इतिहासकार मानते है। उसके बाद भगवती मन्दिर कहलाता है। उस पर अधिकार करने के इसका प्रबन्ध नायर लोगो के हाथों में चला गया। समय जो कुछ हुआ होगा उसकी पुनरावत्ति प्रति वर्ष कालातर मे इसे हैदरपली और डच लोगो ने नष्ट कर भरणी उत्सव के रूप में की जाती है एसा कछ विद्वानोका दिया। सन ७० मे जो खुदाई की गई थी उसमें किले की मत है। उस समय अश्लील गाने, गाली-गलौज. मन्दिर दीवार और एक मध्ययुगीन (आठवी नौवी सदी) मन्दिर को अपवित्र किया जाना आदि का दौर रहता है। हाल ही की नीव के चिह्न पाए गए है (प्रो. नारायणन) प्रो० मे करल सरकार ने कुछ अकुश लगाया है। साथ ही जीवित नारायणन ने इस मन्दिर का निर्माण पाठवी सदी मे माना मुर्गे मंदिर पर फेंकना भी सरकार ने बद करा दिया। कहा है और इसके प्रमाण मे वे किणालर के जैन मन्दिर के एक जाता है कि देवी को अपलील गाने और गालिया आदि शिलालेख का उद्धरण प्रस्तुत करते हैं। इसकी विस्तृत पसद है। समीक्षा न कर केवल इतना ही यहां कहना उचित होगा उपर्युक्त मन्दिर चौकोर द्रविड़ शैली का विमान कि इस शिलालेख का पाठ केल उन्हीं का किया टुआ ग्रेनाइट पाषाण से निमित उसकी दीवारों पर वाहर की है। उन्होने कुणयनल्लूर (Kunayanallur) को कुण वाय- ओर दीप आधार की दो-तीन पक्तियां पूरी दीवाल में बनी नल्लर पर लिया है। यहां भ्रांति हुई इस लगता है। वसे हुई है जिनके कारण उत्सव के समय दीपो की अदभत छटा
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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