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दुबकुण्ड को जैन स्थापत्य एवं मूर्तिकला
0 नरेश कुमार पाठक, रायपुर मुरैना जिले की स्योपुर तहसील में कम्बल एवं कूनों लाटवाणगटगण के जैन मुनियों की परम्परा का उल्लेख नदी के मध्य दुबकुण्ड ग्वालियर से ७६ मील दक्षिण- है। शान्ति शेष के शिष्य विजयकीन ने नगर निवासियों पश्चिम में शिवपुरी से ४४ मील उत्तर-पश्चिम मे मुरैना को प्रेरित कर विशाल जैन मन्दिर का निर्माण करवाया। श्योपुर के सीधे मार्ग पर तथा ग्वालियर से सडक द्वारा विजय सिंह ने भी इस मन्दिर के निर्माण कराने में सेवा १८ मील की दूरी पर घने जंगल में स्थित है। इसी पर्वत पूजा मरम्मत आदि के लिए व्यवस्था की। महाचक्र नामक और वन बाहुल्य आदिवासी प्रदेश में दस यी शताब्दी के ग्राम में गेहूं बोये जाने योग्य भूमि इस मन्दिर को दान मे अन्त मे कच्छपघात वंश ने शक्ति सचयकर राज्य स्थापित दी थी तथा अनाज मन्दिर को देने हेतु प्रादेश दिया था। किया । यहां से मिले दो शिलालेखों में एक विक्रम सवत् एक उद्यान तथा एक कूप भी इम मन्दिर को दान में दिया ११४५ का विक्रमसिंह का शिलालेख तथा दूसरा विक्रम था।
विक्रम था । स्थानीय तेलियो को दीप जलाने के लिए तथा मुनियों सं० ११५२ का काष्ठसंघ के महांचायंवर श्री देवसेन की को मालिश करने के लिए तेल की व्यवस्था की थी। पादुका युगल का शिलालेख महत्वपूर्ण है । शिलालेखो मे दुबकुण्ड मे चार प्राचीन जैन मन्दिरो के भग्नावशेष दुबकुण्ड का वास्तविक नाम डोभ दिया गया है यहा एक अभी भी है। प्रथम जैन मन्दिर कच्छपघात राजा विक्रमकुण्ड भी वर्तमान में है, जो बारह मास जल से भरा सिंह द्वारा विक्रम संवत् ११४३ मे बनवाया गया। दुबरहता है। इसी कारण इसका डोभक नाम पडा है. जो कुण्ड से प्राप्त विक्रमसिंह के शिलालेख में "काछपघात वर्तमान मे दुबकुड के नाम से जाना जाता है । शिलालेख
तिलकवंश' नाम से विभूषित किया गया है। अत: के अनुसार कच्छपघातो की पांच पीढ़ियों का इतिहास
निश्चित इसका सम्बन्ध ग्वालियर के कच्छपघात राजामो मिलता है। प्रथम राजा युवराज था जिसका समय १००० से रहा होगा । २५४०५ मोटर वर्गाकार एवं ३ फीट ईस्वी माना जा सकता है। युवराज न तो नपति था न ऊचा जगति पर निमित मन्दिर आकार में काफी वहत भूप अत: राज्य का प्रथम शासक भपति अर्जुन ही था है। यद्यपि इस समय केवल नीचे का भाग तथा स्तम्भ हो भूपति अर्जुन के उत्तराधिकारी का नाम अभिमन्यू था, शेष है, किन्तु भग्नावशेषो के निरीक्षण से मन्दिर की अभिमन्यु कच्छपघात का सम्बन्ध भोज परमार से था वृहता का पता चलता है कि मन्दिर के मध्य में वर्गाकार इसके उत्तराधिकारी का नाम विजयपाल था। इसका खुला आंगन है, जिसके चारों ओर २ गर्भग्रहो का निर्माण समय लगभग १०४३ ईस्वी माना जा सकता है। इसका हुआ। गर्भगृह के सामने स्तम्भो से युक्त बरामदों का उत्तराधिकारी विक्रम सिंह कच्छपघात राजा हुआ। निर्माण हुआ है। इन गर्भगहो के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्वी शिलालेख मे विक्रम संवत् ११४५ मे इसके दिये गये दान कोने में एक बड़े गर्भगह का निर्माण किया गया है, जिनमें का उल्लेख है। इसे अभिलेख मे महाराजाधिराज कहा तीन जैन प्रतिमायें कायोत्सर्ग मे अभी भी स्थित है। गया है। अत: यह किसी का सामन्त नही था। विक्रम- प्रत्येक गर्भगृह कायोत्सर्ग में प्रतिमायें पादपीठो सहित सिंह ने ऋषि तथा दाहड़ नामक दो जनो को श्रेष्ठिन की स्थापित है। प्रत्येक गर्भगह की पहिचान द्वार स्तम्भो से उपाधि दी थी, वे यहा दो पीढ़ी से रह रहे थे। उनका होती है। यह स्तम्भ वर्गाकार आधार पर उल्टे कलशों प्रपिता जासूक जायसपुर से डोभ आया था। डोभ मे से निर्मित है । मन्दिर का मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व की ओर