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________________ सुख का सच्चा साधन : बारह भावना (लेखक : क्षल्लकमणि श्रीशीतलसागर महाराज) सबसे प्राचीन-भाषा प्रावृत मे, जिसे 'अणु वेक्खा', दीयन्नाभिरय ज्ञानी, भावनाभिनिरन्तरम् । संस्कृत में जिमे 'अनुप्रक्षा' और हिन्दी में जिसे 'भाबना' इहैवाप्नात्यनातक, सुखमत्यक्षमक्षयम् ।। रहते है, वह बारह भेद वानी है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने अर्थात् इन बारह भावनाओ स निरन्तर शोभायमान 'बारसाणवेक्खा' नामक शास्त्र में इसका महत्व प्रदाशत होता हा ज्ञानी व्यक्ति, इसी लोक मे रोगादिक की करते हुए लिखा है :-- बाधा रहित अतीन्द्रिय और अविनाशी सुख को प्राप्त कि पलवियेण बहुणा, जे सिद्धा णर वरा गये काले । करता है। सिज्झिहदि जे वि विया, तज्जाणह तस्स माहप्प ॥१०॥ आगे भी आचार्यश्री लिखते हैंअर्थात् अधिक कहने से क्या प्रयोजन ! जितने भी विध्यति कषायाग्नि, विगलति गगो विलीयते ध्वान्तम् । महापुरुष सिद्ध हुए है और आग •विष्य काल में भी सिद्ध उन्मिपति बोध-दीप्पो, हृदि पुसां मावनाऽभ्यासात् ।। होग, वह सब बारह-भावना का ही माहात्म्य है। अर्थात् इन बारह भावनाओ के अभ्यास से, भव्यज्ञानार्णव-महाशास्त्र मे, श्रीशुभचन्द्राचार्य ने इनका पुरुषो को कषाय रूपी-अग्नि शान्न हो जाती है, राग गल माहात्म्य इम प्रकार वरिण किया है - जाता है, अज्ञानरूपी अन्धकार विलीन हो जाता है तथा (पृ० १६ का शेषाश) हृव मे ज्ञानरूपी दीपक का प्रकाश विकसित होता है। शताब्दी की कच्छपधातु युगीन शिल्प कला के अनुरूप इतना बतला देने पर भी आचार्य श्री को जब सतोष प्रतीत होती है। नहीं हुआ तो वे, हम संसारी जीवो को इन बारह भावना कायोत्सर्ग:-ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त गभग १३वी के प्रति और भी आस्था दृढ करने के लिए लिलते है-- शती ईसी को तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग एता द्वादश-भावनाः खलु सखे | सख्यऽपवर्गश्रियस्, मुद्रा में निर्मित है। (स. क्र. ११७) कर के सिर पर तस्याः सगम-लालसं, घंटयितु मंत्री प्रयुक्ता बुध. । कूलित कश राशि, लेम्बे कर्ण चाप, सिर के पीछे प्रभा- एताम् प्रगुणीकृतामु नियत, मुक्त्यगना जायते, वली, त्रिछत्र, दुन्दभिक दोनो ओर भालाधारी विद्याधर सानन्दा प्रणयप्रसन्न-हृदया योगीश्वराणां मुदे । तीर्थकर क पावं म चावरधारी परिचारक खड़े है, जो अर्थात् हे मित्र ! हे भव्यात्मा ! ये बारह भावनायें एक भुजा मे चावणे दूसरी भुजा कटियावलम्बित है। निश्चय से मुक्तिरूपी लक्ष्मी की सखी-सहेलियाँ हैं। मोक्षदोनो और दो स्तम्भ जिस पर गज धालो का अकन है। रूपी लक्ष्मी के सगम की लालसा रखने वाले बुद्धिमानों ने पादपीठ पर तीर्थकर नेमिनाथ का लाछन शख तथा उसकी इन्हें, मित्रता करने के लिए प्रयोग रूप से कहा है। पूजा करते हुए स्त्री पुरुष स्थित हैं। एस. आर. ठाकुर ने इनका अभ्यास करने से मुक्ति रूपी स्त्री आनन्द सहित इस प्रतिमा को जैन तीर्थंकर लिखा है। स्नेहरूप प्रसन्न हृदय वाली होकर योगीश्वरो को आनन्द सन्दर्भ-सूची १. तिवारी मारुतिन-दन प्रसाद, जैन प्रतिमा विज्ञान देने वाली होती हैं। वागणसी १६८१, पृ. ११७ । स्वामी कार्तिकेय ने भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा के प्रारम्भ २. ठाकूर एस. आर.. केटलाग अ.फ स्कान नही में लिखा हैआर्केलाजिकल म्यूजियम ग्वालियर एम. बी. पृ. २१, "वोच्छ अणुपेहाओ, भविय-जणाणद-जणणीओ" क्रमाक ५। अर्थात् मैं भव्यात्माओं को आनन्द उत्पन्न करने वाली जिला संग्रहालय, शिवपुगे (म.प्र) अनुप्रेक्षाओ को कहता हूं।
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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