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________________ सुख का सच्चा साधन : बारह भावना गाथा ४८ को अन्तिम दूसरी पक्ति मे लिखा है भव्यो भक्त्या ध्यायति ध्यानशीलः । "जो पढ़इ सुणइ भावइ, सो पावइ उत्तम सोक्ख' हेयाऽऽदेयाऽशेष-तत्त्वाऽवबोधी, अर्थात् जो भव्य जीव इन बारह भावनाओ को पढ़ता सिदि सद्यो याति सध्वस्त-कर्मा ।। है सुनता है और बार-बार चिन्तवन करता है वह उत्तम अर्थात भक्ति पूर्व: जो भव्यात्मा, ध्यान स्वभाव मोक्षसुख को प्राप्त करता है। वाला होता हुआ, इन बारह भावना का सदैव ध्यानआचार्य सकल कीर्ति रचित पावचरित सर्ग पन्द्रह का चितवन करता है, वह हेय व उपादेय तत्वो का ज्ञानी, निम्न श्लोक सरूपा १३६ भी इस सम्बन्ध मे ध्यान देने शीघ्र ही कर्मों का नाश करके सिद्धि को प्राप्त करता है। योग्य है। आचार्य श्री लिखते हैं श्री प. जयचन्दजो छाबडा ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की सकल-गुण-निधानाः, सर्व-सिद्धान्त-मूला, टीका करते हुए अनुप्रेक्षा के सम्बन्ध मे लिया है कि जिनवर-मुनि-सेव्याः, राग-पापारि-हन्त्रीः । पढउ पढावह भव्यजन, यथा ज्ञान मन धारि । शिवगति-सुखखानी, सिद्धयेर्मुक्तिकामा, करह निजंग कम को, बार-बार सुविचारि ॥ अगवरनमन्प्रेक्षा, भजध्व प्रयत्नात् ।। अर्थात् है भव्य-आत्माओ ! अपने क्षयोपशम के अनुअथात् हे मुक्ति की कामना करने वाले मुमुक्षुओ! सार इन बारह भावनाओ को मन मे धारण करके, स्वयं ये बारह भावनायें, मकल गुणों को भण्डार है, सम्पूर्ण पढो एव दूमरो को भी पडात्री । माथ ही इनका बार-बार मिद्धान्तो की मूल है, जिनवर तथा मनिवरो के द्वारा चितवन करके, कर्मों की निर्जरा करो। सेवनीय है, राग व पाप रूपी का विनाश करने वाली पडित सदासुखजी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार को टोका हैं एव मोक्ष अवस्था में होने वाले अतीन्द्रिय-सूख को खान मे इन बारह भावनाओ का महत्व इस प्रकार प्रदशित हैं प्रताव मिद्ध पद की प्राप्ति के लिए इन्हे निरन्तर किया है-.. भजो लगातार चिन्तबन करो। ___ "इन का स्वभाव भगवान तीर्थंकर हू चितवन करि श्रीमत् सोमदेव मूरि विरचित यशस्तिलक चम्प के समार देह भोगनि ते विरक्त भय है तात वे भावना वैराग्य द्वितीय आश्वाम मे भी, बारह भावना का वर्णन है, वहाँ की माता है, समस्त जीवनि का हित करने वाली है, इनका महत्व बनाते हुए जो लिखा है उसका भाव यह है अनेक दुखनि करि व्याप्त ससारी जीवान के ये भावना कि-"ये बारह भावना; अठारह हजार शील के भदो में ही भला-उत्तम शरण है। दुखरूप अग्नि करि तप्लायप्रधान और समार समुद्र से पार करने के लिए जज की मान जीवनि कू शीतल पवन का मध्य में निवास समान घटिकाओ के समान है।" है, परमार्थ माग के दिखावने वाली है, तत्वनि का निर्णय रयणसार-गाथा १०० के अन्त में भी लिखा है- करावने वाली हैं। इन द्वादश भावना सगान, इस जीव "अणुपेहा भावणा जुदो जोइ" अर्थात जो जोगी-महात्मा है का अन्य हितकारी नाही है, द्वादशाग को सार है।" वह अनुप्रेक्षा की भावना से युक्त होता है। बार-बार कविवर दौलतरामजी ने भी, निम्न दो सखी छन्दा मे अनुप्रेक्षाजों का चिन्तवन करने वाला होता है। इनका माहात्म्य बताया है सर्वोपयोगी प्रलोक संग्रह पृष्ठ ५८० पर जो उल्लेख है "मुनि सकल-व्रती वड़ भागी, भव भोगनते वैरागी। उसका भाव यह है कि-बारह भावना काचिन्तयन करने वर उपावन माई, चिौ अनुप्रेक्षा भाई ।। से साधु पुरुष (धमण, महात्मा) धर्म में महान उद्यमी इन चिनन सम-सुख जाग, जिमि ज्वलन पवनके लागे। होता है तथा इनसे कर्मों ना महान् सवर होता है। जबहि जिय आतम जान, तबही जिय शिव-मुख ठानं ।। अमिन गति श्रावकाचार अध्याय चौदह का श्लोक ८२ अर्थात् हे भाई ! महाव्रतो को धारण करने वाले वे भी इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य है मुनि-महात्मा महान् भाग्यशाली है जो कि भव-समार योऽनुप्रेक्षा द्वादशापोति नित्य, और भोगों से वैरागी होते है तथा वे वैराग्य को उत्पन्न
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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