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अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद्-खुरई अधिवेशन में
दि० २७-६-६३ को पारित प्रस्ताव
वर्तमान काल में मूल आगम ग्रन्थों के सम्पादन एवं प्रकाशन के नाम पर ग्रन्थकारों को मल गाथाओं में परिवर्तन एवं संशोधन किया जा रहा है। जो आगम को प्रामाणिकता, मौलिकता एवं प्राचीनता को नष्ट करता है। विश्व-मान्य प्रकाशन-संहिता में व्याकरण या अन्य किसी आधार पर मात्रा, अक्षर आदि के परिवर्तन को भी मूल का घातो माना जाता है। इस प्रकार के प्रयासों से ग्रन्थकार द्वारा उपयोग की गई भाषा को प्राचीनता का लोप होकर भाषा के ऐतिहासिक चिह्न लप्त होते है। अतएव आगम/आर्ष ग्रन्थों की मौलिकता बनाए रखने के उद्देश्य से अ० भा० दि. जैन वि० ५० विद्वानों, सम्पादकों, प्रकाशकों एवं उनके ज्ञात-अज्ञात सहयोगियो से साग्रह अनरोध करता है कि वे आचार्यकृत मल-ग्रन्थों में भाषा-भाव एवं अर्थ सुधार के नाम पर किसी भी प्रकार का फर-बदल न कर। यदि कोई सशोधन/परिवर्तन आवश्यक समझा जाए तो उसे पाद-टिप्पण के रूप में हो दर्शाया जाए ताकि आदर्श मौलिक कृति की गाथाएं यथावत ही बनो रहें और किसो महानुभाव को यह कहने का अवसर न मिले कि भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के २५०० वर्ष उपरान्त उत्पन्न जागरूकता के बाद भी मूल आगमों में संशोधन किया गया है।
- सुदर्शन लाल जैन
मत्री
नोट-विद्वत्परिषद् द्वारा पारित उक्त प्रस्ताव सम-सामयिक और आर्ष-रक्षा के लिए कवच हैउसका पालन होना चाहिए। हमसे लोग कहते है आप विद्वानों के नाम बताएँ जिनसे आगम-भाषा विषयक निर्णय लिया जाय । सो हमारी दृष्टि में परम्परित आगम-भाषा भ्रष्ट ही नहीं है तब निर्णय कैसा ? यदि सशोधकों की घोषणानुसार परम्परित आगम-भाषा को त्रुटित या भ्रष्ट मान भी लिया जाय तब तो उस भाषा को पढकर डिग्री प्राप्त वर्तमान विद्वान भी भ्रष्ट-ज्ञान ठहरे-वे क्या निणय करेगे? हम तो व्याकरण वद्ध-भाषा और आप भाषा दोनो में अन्तर मानते है । आर्ष-भाषा के विषय में समय-प्रमुख (पूर्ण श्रुतज्ञानी-गणधर देव) प्रमाण है --और वर्तमान में उनका अभाव है। फलतः हमें आर्ष-रक्षा में पारित उक्त प्रस्ताव ही मान्य है। परम्परित-आगम में विद्वानों की ऐसी श्रद्धा का हम सन्मान करते है।
-सम्पादक