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________________ जिनागमों का संपादन 0 श्री जौहरोमल पारख प्राचीन अर्द्धमागधी के नाम पर वैयाकरणो द्वारा प्राजीविका चलाने वाले लहिये और श्रमण-श्रमणियां पाठो के "शुद्धिकरण" की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है उसकी व प्रबुद्ध श्रावक-श्राविकाये भी इन उपरोक्त लिखित आगमो स्वागत-ममीक्षा कई जैन पत्रिकाओं मे छपी है। डॉ० के० को प्रतिलिपिया करते रहते थे । पहले भोजपत्र व ताड़पत्र ऋषभचन्द्रजी जैन अहमदाबाद वालो ने इस नई दिशा मे पर और बाद मे कागज का चलन हो जाने पर कागज पर मेहनत की · जिमके बारे मे पडितो के अभिप्रायो के आगम लिखे जाते रहे। ऐमी प्रतिया संकडो हजारो की प्रशमात्मक अशों का प्रचार भी हो रहा है जो आज की मख्या में, देश-विदेश के भण्डागे व यत्र-तत्र, अन्यत्र भी फैशन व परम्परागत के अनकल ही है । नमूने के तौर पर मिलती हैं जिनमे कई तो हज र-आठ मो वर्ष से भी अधिक आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्याय के पुरानी। वर्तमान मे आगमधर गुरु से परम्परा मे प्राप्त प्रथम उद्देशक का नव सपादित पाठ भी प्रसारित किया पाठ का प्रायः अभाव हो जाने से, आगम के असली पाठ गया है। निर्धार में ये प्राचीन हस्तलिखित प्रतिया (जिन्हे आदर्श उस बारे में यह लेख है कि प्रारम्भ से आगम पाठ को सज्ञ दी जाती है। ही हमारा एक मात्र आधार रह मौखिक रूप मे ही गुरुशिष्य परम्परा से चलते रहे । चूकि गई है और इसीलिए आगम-संप दन की यह मान्य प्रथा आगम पाठो की शुद्धता पूर्वाचार्यों की दृष्टि में अत्यन्त हकि बिना आदर्श मे उपलब्ध हुए कोई भी पाठ स्वीकार महत्त्व रखती थी अत समय-समय पर वाचनाये व सगतियें न किया जाय। होती थी जिनम सख्याबद्ध बहुश्रत आगमधारक श्रमण इस दृष्टि से डॉ० चन्द्रा द्वारा संपादित प्रथम उद्देशक मिलकर अपनी-अपनी याददास्त को ताजा व सही करते का विश्लेषण करते हैं तो सनग्न सूची के अनुमार महावीर रहते थे। किन्तु बाद मे स्मरण शक्ति के ह्रास व स्वाध्याय जैन विद्यालय संस्करण (जिसे उन्होने आदर्श ग्रन्थ/प्रति के शिक्षणादि अन्य कारणो से आगमो को लिखने व नोट रूप में प्रयुक्त किया है) के पाठको ९४ जगहो पर शब्दो करने की छटपुट प्रथा भी चल पडी, या मुख्यतः गुरुमुख मे भेद किया है। ५ शब्द भेद छठे मूत्र में 'यश्रुति, तश्रुति, से प्राप्त पाठ का ही प्रचलन था और वही शुद्धतर माना दवतस्वर' प्राधार पर और जोड़े जा सकते है जैसा कि जाता था। कालान्तर मे आगम धरो की निरन्तर घटती उन्होने दूसरे सूत्र में (सूची कम सख्या ४८-६, ५२-४) में सख्या को देखते हुए जब आगम-विच्छेद जैसा ही खतरा किये है (मभवत: छठे सूत्र में ये भेद करना चाहते हुए भी दिखाई देने लगा तो पाठ सुरक्षा के लिए आज से लगभग नजर चूक से वे भूल गए लगते हैं)। इस प्रकार पाठ भेद १६०० वर्ष पूर्व गुजगत (सौराष्ट्र) के वल्लभीपुर नामक वाले शब्दो की सख्या ६६ पर पहुच जायगी और १७ शहर में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण (अपरनाम देववाचक) को शब्दो मे (सूची क्रम संख्या १,३,६,३१,३२,३६,४०,५०, अध्यक्षता मे आगम वाचना हुई । उस अवसर पर आगम- ५१,५५,५६,६५ ६७,७६,८३,८७.६०) तो दो दो पाठ भे धारक आचार्यो/उपाध्यायो को गुरु परम्परा से प्राप्त पाठ है अत: कुल पाठ भेद ११६ गिनाये जा सकते हैं। लेकिन व व्यक्तिगत छुटमुट प्राप्त पोथियों के व्यापक आधार पर इतने सारे पाठ भेदो में केवल ७ भेद ही (सूची क्रम संख्या समस्त उपलब्ध आगमों को लेखबद्ध किया गया और वही ६,४६ ४६,५२,५३,५४ व ५७) आदर्श मम्मत है। बाकी पाठ आज समूचे श्वेताम्बर जैन समाज में मान्य है। के सब भेद आदर्शों पर आधारित न होने के कारण अमान्य चलन यारो की खुन
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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