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________________ पाण्डुलिपियों की सुरक्षा आवश्यक डॉ. ऋषभचन्द्र फौजदार जैन परम्परा में शास्त्रों का विशेष महत्व है। यहां मन्दिर में तो इनकी संख्या हजारों में है। किन्तु अधिकांश स्वाध्याय को परम तप कहा गया है। स्वाध्याय के लिये शास्त्रभंडारो में इनकी समुचित देखरेख नही हो पा रही शास्त्र आवश्यक हैं। हमारे पुरखों ने शास्त्र स्वयं लिखे। है। कहीं इन्हें चूहे खा रहे हैं तो कहीं दीमक चाट रहे हैं। दूसरों के लिये प्रेरित किया। अपना धन व्यप करके कहीं चोरी-छिपे पूरा शास्त्र या उनका महत्यपूर्ण अश बेचा शास्त्र लेखन कराया। प्रचार-प्रसार के लिये शास्त्र एक जा रहा है। यह गभीर चिन्ता का विषय है। इस ओर स्थान से दूसरे स्थान तक भेजे। शास्त्र भण्डार स्थापित हमारा ध्यान जाना चाहिए। किये । अन्य धर्मात्माओं को प्रेरणा दी। उनसे भी शास्त्र भारत को पाण्डुलिपियो का देश कहा जाता है। भंडार स्थापित करवाये। उनमें सग्रह के लिये शास्त्रों को क्योकि यहां विश्व की सर्वाधिक पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं। व्यवस्था की। दान के भेदों मे शास्त्र दान का विशेष भारत को इस बहुमूल्य संपदा से विदेशी लोग अत्यधिक स्थान है। शास्त्रदान मे कौण्देश का दृष्टांत प्रसिद्ध है। प्रभावित रहे हैं । सकडों विदेशी पाण्डुलिपियो के अध्ययन शास्त्रदान पुण्य का प्रधान कारण माना गया है। हेतु भारत पाये। यहां उन्होंने पालिपियो का भरपुर इसीलिये एक-एक शास्त्र की अनेक प्रतिलिपिया करायी उपयोग किया । अन्त में सास्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व जाती थी। बावक जन, राजे-महाराजे या श्रेष्ठ जन, को पाण्डुलिपियां येन-केन प्रकारेण अपने-अपने देश ले गये। यश तथा पुण्य लाभ के लिए शास्त्र लिखवाते थे। उन्हें आज ब्रिटेन, फांस, जर्मनी आदि देशो में लाखों भारतीय शास्त्रमंडारों तथा मन्दिरों में सुरक्षित रखवाते थे। इससे पाण्डुलिपियां मौजूद है । वहा वे भारत से बेहतर व्यवस्था उन्हें यश मिलता था। पुण्यार्जन होता था। शास्त्रों की में सुरक्षित हैं। यही नहीं अनुसन्धान हेतु उनको प्रतिसुरक्षा होती थी। धन का सदुपयोग भी होता था। दक्षिण लिपियां प्राप्त करना सरल है। इसके विपरीत अपने ही भारत की एक धर्मात्मा नारी अत्तिमब्बे ने पोन्नत देश के सरकारी-गैरसरकारी और व्यक्तिगत सग्रहों से शान्तिपुराण को एक हजार प्रतिया तयार कराकर बित- अनुसन्धान हेतु पाण्डुलिपि, उसकी जोराक्स प्रति या रित करायी थी। उस देवी ने सुवर्ण और रत्ननिमित डेढ़ माइक्रोफिल्म प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। देवदर्शन हमारी दैनिक क्रिया का प्रमुख अग है। हम हजार जिन मूर्तियां भी बनवाकर प्रतिष्ठित करायी थी। उक्त कार्य उसने अपना धन व्यय करके सम्पन्न किये। प्रतिदिन देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करते हैं। उन्हें अर्ध्य चढ़ाते हैं । यपार्थ में हमारी यह दैनिक क्रिया केवल देव पुण्य प्रधान तथा सातिशय महत्व के कारण समाज (जिनदेव) तक ही सीमित रह गई। देव मन्दिर के स्वाके प्रायः प्रत्येक वर्ग ने शास्त्र सग्रह किया । उदाहर स्वरूप ध्याय कक्ष में विराजमान शास्त्र की और हमारा ध्यान साधुओं के संग्रह, भट्टारकों के संग्रह, मठो के संग्रह, नहीं जाता । जिनका ध्यान जाता है, वे उनकी धूल साफ मन्दिरों के संग्रह, राजाओं के सग्रह, श्रेष्ठियों के संग्रह तथा करने में स्वयं को गौरवहीन समझते हैं। परिणाम स्वरूप सामान्य प्रावकों के संग्रह आज भी प्राप्त होते है। प्रत्येक शस्त्र संपदा नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। इस दिशा मे ठोस प्राचीन जिनमन्दिर में शास्त्रों की सैकड़ों प्राचीन पा. कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता है। जैन समाज के पास लिपियां उपलब्ध है। शायद ही कोई ऐसा जिनमन्दिर भारत की सर्वाधिक पाइलिपिया है। किन्तु उनकी सुरक्षा होगा, जिसमे पाण्डुलिपियां उपलब्ध न हों। किसी-किसी (शेष पृ० १३ पर)
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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