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________________ प्राकृत एवं अपभ्रश भाषा में सुलोचना चरित 0 श्रीमती कल्पना जैन, शोधछात्रा जैन साहित्य में परित काव्यों की प्रधानता है। से युक्त अच्छी तरह से कहने योग्य सुलोचना नामक कथा मानव-जीवन को विभिन्न सांस्कृतिक मूल्यो से सार्थक कही है (उम कवि को नमस्कार है।"करने की दिशा में जो भी व्यक्ति पुरुष अथवा नारी अपने संपिहय-जिणवरिंशा धम्मकहा-बंध-दिक्खिय-परिवा। जीवन को लगा देते हैं उनके चरित को अमर रखने के कहिया जेरण सुकहिया सुलोचरणा समवसरणं व ॥ लिये जैन कवि अपनी लेखनी चलाते रहे हैं। यही कारण कुवलयमाला के सुलोचना के इस उल्लेख से यह तो कारण है कि तीर्थंकरों के जीवन के अतिरिक्त अन्य महा. भात हाता । ज्ञात होता है कि प्राकृत मे सुलोचना कथा नामक यह पुरुषों एव महासतियों का जीवनचरित काम्य का विषय ग्रन्थ काव्य-गुणो से युक्त रचना रही होगी किन्तु इसका बना है। जैन साहित्य में स्त्री पात्र प्रधान रचनाएँ भी कवि कोन था इसका उल्लेख इस सन्दर्भ मे नही है। हा. पर्याप्त मात्रा में लिखी गई है। उनमे सुलोचना चरित ए. एन. उपाध्ये ने इसका कवि हरिवर्ष को माना है और प्रचलित कथानक है। यह कथानक प्राकृत अपघ्रश एवं पण्डित दलसुख भाई मालवणिया कवि प्रभजन को इस संस्कृत भाषाओं में विकास को प्राप्त हुआ है। कथा का कर्ता मानने का सुझाव देते है। किन्तु प्राकृत प्राकृत सुलोचना चरित: को यह सुलोचना कथा अभी तक किसी ग्रन्थ भण्डार से सुलोचना कथा आठवीं शताब्दी के पूर्व इतनी प्रमित उपलब्ध नहीं हुई है। अत: इसके सम्बन्ध में अधिक कल थी कि तात्कालीन प्राकृत संस्कृत एवं अपभ्रश के प्रतिष्ठित नहीं कहा जा सकता। कवि अपने ग्रन्थों में उसका उल्लेख किये बिना नहीं रहे। प्राकृत सुलोचना कथा के सम्बन्ध मे एक सन्दर्भ देवप्राकृत चम्पू काव्य कुवलयमाला के लेखक उद्योतन सूरि सेनगणि की अपभ्र श रचना "सुलोचणाचरिउ' में भी ने सुलोचना कथा का इस रूप मे स्मरण किया है प्राप्त होता है जिसमे कहा गया है कि कुन्दकुन्दगणि के "जिसके द्वारा समवसरण जैसी जिनेन्द्र देवों से युक्त द्वारा प्राकृतगाथाबद सुलोचना चरित को इस प्रकार से और धर्मकथाबन्ध को सुनकर दीक्षित होने वाले राजाओ में (देवसेनगणि) पद्धड़िया आदि छन्दो मे (अनुव द) कर रहा हूं किन्तु उसे कोई गूढ अर्थ प्रदान नही कर रहा हूं(पृ० १२ का शेषाश) जंगाहा-बंधे पासि उत्त के प्रति समाज उदासीन है। समाज पर अनेक जिम्मे सिरि कुंबकंद-गणिरणा णित्त । दारियां हैं। देव, शास्त्र और गुरु की रक्षा एवं संवर्धन तं एम्वहि पद्धडियहि करेमि, उसका प्रमुख कर्तव्य है। इसके लिए अब युवा पीढ़ी को परि कि पि न गूढउ प्रत्थु देमि ॥ अब आगे आना चाहिये। उसे इस अनमोल धरोहर की देवसेनमणि के इस उल्लेख पर विद्वानो ने कोई विशेष सुरक्षा के लिये क्रान्तिकारी कदम उठाने का संकल्प करना ध्यान नहीं दिया है । क्योकि कुन्दकुन्दगणि की जो प्राकृत चाहिये। युवापीढ़ी को समाज के अनुभवी बुजूगो, विद्वानों रचनाए अभी तक उपलब्ध हुई है उनमे सुलोचना चरित और साधु संस्था का विशेष मार्गदर्शन मिलना चाहिये। सम्मिलित नही। प्राकृत सुलोचना चरित के ये दोनों यही नेरा नम्र निवेदन है। उल्लेख इस संभावना को बनाये हुये हैं कि प्राकृत की -प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सुलोचनाचरित रचना प्राचीन समय में प्रचलित थी। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी संभव है, कभी इसकी प्रति उपलब्ध हो जाये।
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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