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श्वेताम्बर मागम और दिगम्बरस्व
णिज्झो स इत्ता जे अचेले परिवसिए, तस्स णं भिक्खस्स अरे वही नग्न है जो सांसारिकता से निवृत्त होकर णो एवं भवइ-परिजण्णे मे वत्थे वन्थ जाइस्सामि, सुत्त मेरे द्वारा दशित धर्म को धारण करते हैं, यह उच्चतम जाइस्सामि, सइ सधिस्मामि सोवीस्सामि, उक्कसिस्सामि धर्म मानवों के लिए विहित किया गया है। इस बात से बोक्कसिस्सामि परिहिस्मामि, पाउणिस्सामि ।
हर्षित होकर कर्मों का नाश करते हुए सब कुछ जानते हए
पाप कर्मों को छोड देगा। हमारे धर्म में एकलविहारी अदुवा तत्यपरक मतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुमनि,
मुनि भी होते हैं। इसलिए बुद्धिमान लोगों को श्रमण का मीयफासा फुसति, ते उकासा फुमति, दसमसगफासा फुसति।
जीवन बिताना चाहिए, शुद्ध भिक्षा ग्रहण करना चाहिए एगएरे अग्णयरे विरूवरूवे फामे अहियासेति अचेले।।
सभी प्रकार के परिवारों में आहार चाहे सुगधित हो या लाघगं आगममाणे । तवे से अभिसामण्णागए भवति
दुगंध वाला। दृष्ट प्राणो दूसरे प्राणियो को दुख पहुंचाते जहेय भगवता पवेदितं तमेव अभि समेच्चा सम्बतो सन
है यदि यह सब आपके साथ हो तो मेरा आदेश है कि उसे ताए सम-मेव समाजाणिया ।'
सहन करो। जो साधु धर्म को जानता है उस पर आचरण करता
ऐसा मुनि जो अचेल है, धर्म को जानता है, आचरण है और बाह्य आचरण की भी रक्षा करता है, सासारिकता
और सयम से रहता है उसको ऐसा विचार नही होता से दूर दृढ रहता है, सारे लोभ आकांक्षाओं को जानकर
कि मेरे वस्त्र परिजीर्ण हैं, नये के लिए याचना करूगा, छोडता है वह महामुनि हो जाता है, सारे बधन तोड़ देता कि
डोरे के लिये याचना करूँगा, सुई के लिये माचना करूंगा, है, सोचता है कि कुछ भी मेरा नही है-मैं केवल एक मैं
उनको सी लगा, उनको सुधार लूंगा, पहन लूगा या ओढ़ हं इस प्रकार विरत हो जाता है अनगार होकर मुंड। होकर विहार करता है, अचेल साधु व्रत करता हुआ देह लूगा। से संघर्ष करता है, उसे लोग गाना देंगे, प्रहार करेंगे और
इस प्रकार का अचेलक जो तप मे पराक्रम दिखाता सत्य दोषारोपण करेंगे-इस सबको पूर्व जन्म का फल है उसे अक्सर घांस भेगा, शीत-उष्ण, दंश-मशक परेशान समझ कर सुख-दुख मे समभाव रख कर शांति से विचरण करेंगे, वह अपनी इच्छाओ व कर्मों का दमन करता है करता है, सामारिकता को छोडकर सब कुछ सहन करता वही तप करने के योग्य है ऐसा भगवान ने कहा है यह हुआ सम्यक् दर्शन को बार-बार धारण करता है। समझकर सम्यक्त्व को धारण करता है। (क्रमश.)
पाव-टिप्पण १. जैन हितैषी भाग १३, अंक ६, पृ० २९२ ।
(b) अंग सुत्ताणि जैन विश्व भारती, लाडनं (राज.) २. (a) धर्मसागर उपाध्याय, प्रवचन परीक्षा ।
वि. स. २०३१, आयारो, अष्टम, अध्ययन (b) प्रेमी नाथूराम, जैन साहित्य और इतिहास पृ. उद्देश ४, ५, ६, ७ पृ. ६२-६५ | Sacred २४१ ।
Books of the East-Vol. 22, Jain ३. भगवती सूत्र, सुधर्मा स्वामी प्रणीत अभयदेव सूरि Sutras Pt. I मोतीलाल बनारसीदास १९६४।
विरचित विवरण सहित, जिनागम प्रकाशक सभा, ६. (a) उपरोक्त मायारो छठा अध्ययन उद्देश २-३ मुंबई वि० सं० १८५४ शतक १, उद्देशक ९, पृ.
पृ० ५०-५२। २०६-२०६ तथा २६६-३००।
(b) आचासंग प्रथम श्रुतस्कघ भद्रस्वामिकृत नियुक्ति उपरोक्त शतक २, उद्देशक १, सूत्र १८, पृ. २३८ ।
श्री शीलांकाचार्य कृत वृत्तियुक्त, सिद्धचक्र साहित्य ५. (a) सुधर्मा स्वामि आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कंध प्रचारक समिति जैनानन्द पुस्तकालय, सूरत सन्
विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन उद्देश ४, ५, ६ । १९३५ पाना नं० २१९-२२१ ।