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________________ १०, वर्ष ४६, कि.१ भनेकान्त से एगामिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा लापविय आगम- किशोतकाल व्यतीत हुआ है ग्रीष्म ऋतु आ गई है इसमाणं तो से अभिसमन्नागए भवजहेय भगवया पगेइय लिए मेरे पास के दो वस्त्रों में से खराब वस्त्र डाल द, तमेव अभिसमेच्चा सव्वओ सब्बताए समत्तमेव समभि. और अच्छा वस्त्र रखू या लम्बे को कम करने या एक ही जाणिया ॥१॥ वस्त्र रखू या वस्त्र रहित रहूं ऐसा करने में लाघव धर्म इसके अनसार जिस साप को एक पात्र और तीन होता है इसे तप कहा गया है इसलिए जंसा भगवान ने वस्त्र रखना हो उनको ऐसा विचार न हो कि मुझे चौथा कहा है वैसा जानकर वस्त्र रहितपने में और वस्त्र सहित पने मे समभाव रखना। वस्त्र चाहिएगा। यदि तीन वस्त्र पूरे न होवें तो निर्दोष वस्त्र की याचना जहां मिले वहाँ करना। जैसे निर्दोष जिस साधु को एक पात्र के साथ एक ही वस्त्र रखने वस्त्र मिले वैसे ही पहिनमा परन्तु उन वस्त्र को धोना की प्रतिज्ञा हो उनको ऐसी चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि नहीं, रंगना नहीं, धोए हुए, रंगे हुए वस्त्र को धारण दूसरा वस्त्र रखू। यदि वस्त्र न हो तो शुद्ध वस्त्र की करना नही ग्रामानुग्राम विचरते-विचरते वस्त्र को छिपाना याचना करे जैसा मिने वैसा पहिने । उष्ण ऋतु आने पर नहीं-यह वस्त्रधारी मुनि का आचार है। उसको परिठवे या तो एक वस्त्र से ही रहे या वस्त्र रहित जब ऐसे साधु का विचार हो कि सर्द ऋतु बी गई रहे तथा विचार करे कि मैं अकेला हू, मेरा कोई नहीं है : है और ग्रीष्म ऋतु आ गई है अथवा क्षेत्र स्वभाव से उष्ण. एसी एकत्व भावना भाता हुआ अपने सदश सबको जाने काल मे भी सर्दी का आना संभव हो तो तीनों रखे या उससे लापत्र धर्म की प्राप्ति होती है और इसी से तप तीन में से एक छोड़े दो रखे, या दो छोड़े एक रखे या होता है इसलिए जैसा भगवान ने कहा वैमा ही जानकर समभाव रखना। बिल्कुल न रखे। ऐसा करने से निर्ममत्व धर्म की प्राप्ति होती है इससे लाघवपन आता है इसको भी भगवान ने (३) आयारो (आचारांग) सूत्र मे लिखा है-अहेगे तप कहा है यह सब भगवान की आज्ञा वस्त्र रखने और धम्म मादाय आयाणप्पभिइ सुपणिहिर चरे, अपलोयमाणे वस्त्र न रखने में समभाव रखना । २॥ जिस साधु को दढे । सम्वं गेहि परिण्णाय, एस पणए महामुणी । अइअच्च सा विचार हो कि मुझको शीत आदि परिषह आ पड़े सव्वतो सगं "ण मह प्रथित्ति इति एमोहमसि" जयभारणे है इनको मैं सहन करने में असमर्थ हूं तब उस स्थान पर एत्थ विरते अरणगारे सव्वओ मुडे रोयते जे अचेले परिसाध को वेहानसादिक मरण करना उचित है वहा ही वृसिए संचिक्खति ओमोयरियाए। से अकुठे व हए व उसकी काल पर्याय है जिसे भक्त पशिादिक काल पर्याय सिए वा पलिय पगथे अदुवा पगथे। अत हेहि सद्द फासेहि वाला मरण हितकर्ता है वैसे ही यह वेहानसादिक मरण इति संखाए । । एगतरे अण्णयरे अभिण्णाय तितिक्खमाणे हितका है। इस तरह मरण करने वाला मुक्ति को परिवए जे य हिरी, जे य अहिरीमणा। चिच्वा सव्व जाता है इस तरह वेहानसादि मरण मोह रहित पुरुषो का विसोत्तिऐ फासे-फासे समियदंसणे । कृत्य है, हितकर्ता है, सुखकर्ता है, योग्य है, कर्मक्षय करने एत भो गिणा वुत्ता जे लोगसि अणागमरण धम्मिणो वाला है और उसका फल भी भवान्तर में साथ रहता है आणाए मामग धम्म। एस उत्तर वादे, इह माण वाण ऐसा मैं कहता हूं। वियाहिते। एत्थोवरए त झोसमाणे । आयाणिज्ज परिकिसी साधु को एक पात्र और दो वस्त्र रखने का पणाय, परियारण विगिंचह। इहमेगेसि एगरिया होति । नियम हो तो उमको ऐसा विचार नहीं होना चाहिए कि तत्यियराइयरहिं कुलेहि सूद्ध सणाए सव्वेसणा। से मेहावी में तीसरे वस्त्र की याचना करू । यदि इतने वस्त्र नहीं हों परिव्यए । सुभि अदुवा दुभि अदुवा तत्थ भेरवा पाणपाणे तो जैसा मिले वैसा शुद्ध निर्दोष वस्ज्ञ मांग कर धारण कलेसति । ते फासे पुट्ठो धीरो अहिपासेज्जासि । करना यही माधु का आचार है। जब साधु को ऐसा लगे एवं खु मुणी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधूतकप्पे
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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