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________________ अष्टपाहुड को प्राचीन टीकाएँ पशाभूत के पत्र ४० तथा प्रन्यांक ११५७ है। १०२८ खेडी, बम्बई, इन्दौर, सागर और स्ट्रासवर्ग (जर्मनी) के नं. को पांडुलिपि मोक्षप्राभूत की है। इसकी लिपि शास्त्र भडारो में सुरक्षित हैं । इनमे से अहमदाबाद, ईडर, कन्नड हैं। इसमें मूल प्राकृत गाथाओं की सक्षिप्त टीका इन्दौर और सागर की चार पांडुलिपियों को जीराक्स भी है। टीका की भाषा कन्नड है । प्रति जीर्ण है। पत्र प्रतियाँ प्राप्त कर ली हैं। इस टी हा का रचयिता अज्ञात टूट रहे हैं। इसका परीक्षण कर लिया गया है। है। षट्पाहुड को एक टब्बा टीका भूधर ने लिखी है । षट्पाहु पर एक अन्य टीका की सूचना हमें भट्टारक इगकी एक पांडुलिपि जयपुर के दिगम्बर जैन मंदिर यमःकीति सरस्वती भंडार, ऋषभदेव के प्रकाशित ठोलियान के शास्त्रमडार मे विद्यमान होने की सूचना है। सूचीपत्र' से प्राप्त हुई। इस सूची में षट्प हुड की दो इसके पत्र ६२, वेष्टन सख्या २४४ है। यह प्रति सवत् पांडुलिपियों का विवरण है। एक प्रति के विवरण मे १७५१ की है । इस पाडुलिपि के विवरण से ज्ञात होता है टीकाकार के काल में "टी देवी" तथा भाषा के कालम मे कि यह टब्बा टीका भूधर ने प्रतापसिंह के लिए बनाई थी। "प्राकृत टी" लिखा है। टी देवो के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। सम्भव है पांडुलिपि में कुछ विवरण सम्वत् १८०१ मे षट्पाहुड का हिन्दी पचानुवाद सुरक्षित हो। देवीसिंह छाबडा ने किया है । इस अनुवाद की तीन पांड लिपिया ज्ञात है। इन तीनो के अलग-अलग स्थानों म प्रभाचन्द्र महापण्डित ने अष्टपाहुड की 'पजिका' नाम विद्यमान होने की सूचना है। एक दिगम्बर जैन मन्दिर से संस्कृत टीका लिखी है। डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने आदिगाथ, बदो'", एक पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, इनका समय सम्वत् १.१०.१०६० सूचित किया है।' इन्द्रगढ़" और एक सम्भवनाथ दिगम्बर जैन मदिर, उदप. इन्होंने इन्हें "प्रमाचंद्र महापंडित आफ धाग" लिखा है। पुर१२ के शास्त्र भडार मे । आदिनाथ मदिर बदी को प्रति इस सूचना के अनुसार प्रभाचद्र महापंडित ने प्रवचनसार पर "प्रवचनसार सरोज भास्कर", पञ्चास्तिकाय पद सवत् १८५ की है। इससे ज्ञात होता है कि देवीसिंह "पञ्चास्तिकाय प्रदीप" और समयसार तथा मूलाचार छावड़ा ने षट्पाहुड का हिन्दी पद्यानुवाद अष्टपाहुर की पर भी टीकाएँ लिखी हैं। अष्ट पाहुड पर एक संस्कृत । ढढारी भाषा वचनिका (प. जयचद छावड़ा सवत् टीका प्रभाचा महापडित से भिन्न प्रभाचद्र ने की है। १८६७) से पूर्व किया है। ' इनका समय १२७० से १३२०ई० है। इन्होन समयसार, सम्बत् १८२०-१८८६ के विद्वान् प० जयचद छ.बड़ा प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय पर भी टीकाएँ रची हैं।' ने सवत् १८६७" मे अष्टपार पर ढारी भाषा मे वचविक्रम की १६वीं शताब्दी के आचार्य श्रुतसागर सूरि ने निका टीका लिखी। प्राकृत संस्कृत में लोगो को दक्षता अष्टपाहु के सण, सुत, चरिन, बोह, भाव और मोक्ख- प्रायः समाप्त हो जाने के कारण यह टीका बहुत प्रसिद्ध पाहड पर पदखंडास्वयी संस्कृत टीका लिखी है। यह हुई। यही कारण है कि इस टोका युक्त अष्टपाहडकी टीका प्रकाशित हो चुकी है। श्रुतसागर सूरि ने कुल ३८ पांडलिपियो गाँवो-गाँवो मे अब भी सैकड़ो की संख्या में रचनाएं की हैं। ये टीकाग्रन्थ, कथाप्रथ, व्याकरण और उपलब्ध हैं। यह टोका प्रकाशित हो चुकी है। पडित काव्यग्रन्थ हैं। जयचद छावड़ा ने समयसार, स्वामीकार्तिकेयानप्रेक्षा, षट्पाहर पर एक अन्य संक्षिप्त सस्कृत टीका प्राप्त द्रव्यसंग्रह, परीक्षामुख, आप्तमीमासा, पत्रपरीक्षा, सर्वार्थहुई है। इससे मात्र गाथार्थ स्पष्ट होता है। इस टीका सिद्धि, ज्ञानाणव आदि अनक ग्रन्थो पर ढ ढारी भाषाकी अनेक पांडुलिपियां भारत और विदेशों में भी मोजद वनिका लिखी है । की २० पांडुलिपियों की जानकारी है। ये प्रतियां षट्पाहुड पर संवत् १७८९ से पूर्व भी एक हिन्दी जयपुर, महावीरजी, अहमदाबाद, ईकर, ज्यावर, चांद- टीका लिखी गई है। इस टीका की ३ पाडुलिपियां शाव
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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