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________________ प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में प्राप्त कुछ पत्र मान्य भाई मा० प्रेमचन्द जी, (अहिंसा मन्दिर) महाकवियो की कालजयी रचनायों में व्याकरण-विरुद्ध जय जिनेन्द्र ! उस दिन दिल्ली मे आपसे भेंट के प्रयोग उनके दोष नही, उनकी विशेषता बन गये हैं। समय अन' यास आ. कुन्दकुन्द कृत समयसार के भिन्न- कवि कभी भाषा के नियमों से नियंत्रित नहीं होता संस्करणो और सस्था विशेष द्वारा प्रकाशित सस्करण में अपितु वह तो स्वयं भाषा का नियामक/निर्माता होता है, शौरसेनी व्याकरण के नियमों को आधार बनाकर पाठ भाषा करण के नियमों मे नियत्रित नहीं होती, अपितु निर्माणविषयक विवाद पर भी कुछ चर्चा हुई। यह विवाद उमका नियामक तो लोक-व्यवहार या लोक-जिह्वा हुआ अत्यन्त खेदजनक है। करती है । भाषा के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि मैं 'अनेकान्त' का पाठक है। इस सम्बन्ध मे जिज्ञासा किसी भाषा के लोक-प्रचलित रूप से उसके व्याकरण का वश अनेकान्त के भिन्न-भिन्न अको मे एतद्विषयक अका निर्माण होता है न कि व्याकरण सामने रखकर भाषा को पुनः पढा । इस विवाद के केन्द्र मे 'समयसार' का जो । का। यद्यपि पूर्णत: नहीं, परन्तु बहुत अशो मे सस्कृत एक सस्करण है उसके श्रद्धास्पद 'सम्य-प्रमुख' अथवा सशोधन- ऐसी संस्कार की हुई कृत्रिम भाषा है। इसी कारण मी मरकार की ई ऋषित खा प्रमुख के 'मुन्नडि (पुगेवाक) माहित ग्रन्थ और उसके सम्कृत एक विद्वभोग्य भाषा बनकर रह गयी। वह कभी पाठो को भी ध्यान से देखा। लोकभापा नही बन सकी। प्रसगत: मैं यह कहना उचित समझता हूं कि मैंने दस- ऐसी कृत्रिमता से बचने और अपने-अपने सिद्धान्तो वर्षों तक लगातार स्वर्गीय डा० हीरालाल जी तथा डा० को सुगम व सुबोध बनाये रखने के लिए हो भ० महावीर, प्रा. ने. उपाध्ये के मार्गदर्शन मे सपादन कार्य सीखने/करने महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायियो ने अपने उपदेश अतिका अनुभव प्राप्त किया है। डा० उपाध्ये द्वारा सपादित विचारपूर्वक संस्कृत मे न देकर लोकभाषा प्राकृत में प्रवचनसार को वर्षों तक पढा/पढाया है। तथा प्राचीन दिये। वे जहाँ जहाँ धर्मप्रचार के लिए गये, उनकी वाणी पवित्र ग्रन्थो के सम्पादन के मान्य सिद्ध न्तों का सम्यक् में प्रादेशिक भिन्नताएं आना न केवल स्वाभाविक अपितु परिचय प्राप्त किया है। मेरे द्वारा संपादित 'जंबूसामि- अनिवार्य भी था। इस कारण निश्चय व्यवहार नयों के चरिउ' भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है। उसे सदन अलग-अलग महत्त्व मिद्ध करने के लिए उन्हें उच्चस्वर से की दृष्टि से देखा जा सकता है। यह घोषित करने मे रंचमात्र भी सकोच न हुआ कि जिस ___ 'पुरोवाक' मे 'समयसार' या (समयसारो) के श्रद्धेय प्रकार किसी अनार्य (म्लेच्छ) को उसकी भाषा संशोधन-प्रमुख ने पाठ संपादन के जो सिद्धान्त स्थिर किये (बोनी) का आश्रय लिए बिना समझाया नहीं जा सकता, हैं वे संस्कृत भाषा में लिखे किसी अन्य के सम्बन्ध में उसी प्रकार 'व्यवहार' के बिना 'निश्चय' का उपदेश सम्भवतः उचित हो सकते थे, पर वह भी नियमतः नहीं। करना अशक्य है। क्योंकि संस्कृत के कई प्रख्यान महाकवियों 'अपाणिनीय' ऐसे उन स्वसंवेदी, अध्यात्मरस मे विभोर रहस्यवादी सर्थात पाणिनी कत अष्टाध्यायी के नियमों के विरुद्ध संतों से आग्रहपूर्वक यह अपेक्षा और ऐमी स्थापना करना प्रयोग किये हैं। इसी कारण यह उक्ति प्रचलित हुई, कि "वे न केवल छन्द और व्याकरण अपितु भाषा-शास्त्र "निरंकूशाः कावय." कवि निरकुश होते हैं। परन्तु उन (जिसका इतिहास कुल दो सौ वर्षों का है) के भी पण्डित
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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