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________________ २८, वर्ष ४६, कि. २ अनेकान्त थे, सौर उन्होने प्रत्येक शब्द भाषा-रचना और छन्दशुद्धि पाद टिप्पण मे दे सकता है। और प्राकृत ग्रन्थों में तो आदि तथा भाषाशास्त्र के सभी नियमों को ध्यान मे रख- विशेष रूप से किसी भी सिद्धान्त को मानकर पाठी को कर अपनी जगद्वद्य रचनाओं का प्रणयन किया।" इसके एकरूप बनाना तो सरासर प्राकृत की सुन्दरता, स्वाभासम्बन्ध में क्या कहा जाय ? वे कवि और भाषाविद् होने विकता को समाप्त कर देना है जो संपादन के सर्वमान्य के कारण 'सत' नही अपितु 'सत' होने के कारण कवि थे। सिद्धान्तो के सर्वथा विरुद्ध है। काव्य उनकी प्रयत्नपूर्वक की गयी रचना नहीं, ये तो एक उदाहरण देकर मैं अपनी बात और स्पष्ट करना उनके उद्गार हैं, जो काव्य के रूप मे प्रगट हुए। चाहूंगा । प्राकृत के प्रसिद्ध सहक 'कर्पूरमजरो' की अनेक ___ और फिर कभी प्राकृत के कवियो और लेखको ने तो प्रतियां सामने होने पर भी हा. स्टेन कोनो ने 'पद्य मे कभी व्याकरण के नियमो को ध्यान में रखकर अपनी महाराष्ट्री और गद्य मे शौरसेनी' का प्रयोग किया जाना रचनाओ का प्रणयन किया ही नही । उनकी रचनाओ को चाहिए, क्योंकि महाराष्ट्रो 'अधिक मधुर होती है' शोरदेखकर विभिन्न प्राकृतो के नियमोपनियमों का निर्माण सेनी उसकी अपेक्षा कम मधुर' इस उक्ति को आधार मान किया गया है। प्राकृतें जन-बोलियां थी और उनमे क्षेत्रीय कर इसी सिद्धान्त पर बलपूर्वक 'कपूरमञ्जरी' का अत्यन्त रूपो का होना-यथा होदि, भौदि, होई, भोइ, हवा, श्रमपूर्वक एक सस्करण तयार करके प्रकाशित किया। भवह ही स्वाभाविक था। ऐसे भेदो का न होना सर्वथा वह संस्करण (उपलब्ध) विद्वानों द्वारा पूर्णतया अमान्य अस्वाभाविक होता । प्राकृतो की यह बहु-रूपात्मकता हो कर दिया गया। तब स्व. डा० मनमोहन घोष ने 'कर्पूरउनका प्राण, उनकी आत्मा और उनकी सुन्दरता है । इन मजरी' का एक नया सस्करण प्रस्तुत किया जिसमे रचनामी को व्याकरण के जड्-कट हरे मे बलात् बाधना गद्य-पद्य दोनो मे शौरसेनी का ही प्रयोग है तथा वह तो इसके प्राणहरण करने के समान होगी। और फिर यह कर्परमजरी का श्रेष्ठ सस्करण है। भी कोन नही जानता कि प्राचीन गाथा' छन्द के कितने अन्त मे एक बात और ! विभिन्न प्राकृतो के बीच मेध-प्रभेद रहे हैं। उनमे कही एकाध मात्रा कम, कही कोई कठोर भेदक/विभाजक नियम नही थे। अत: महाअधिक यह बहुत साधारण बात है। ऐसे छन्द दोषी को राष्ट्री, जैनमहाराष्ट्री, शोरसेनी,जैन शोरसेनी आदि नाम तो उच्चारण मे लघु को दीर्घ व दीर्घ को लघु करके ही थोडी-थोड़ी विशेषताओ के कारण रखे गये। जिन्हे किसी ठीक कर लिया जाता है। भाषा/व्याकरणीय भाषा शास्त्रविद् ने माना ओर किसी और यह भी कि प्राचीन कृतियो मे व्याकरणशुद्धि, ने नही। छन्दशुद्धि या अर्थशुद्धि आदि किसी भी कारण से सपादक अत: आगमो के सपादन मे पाठों की व्याकरण या को किसी एक मूल-प्रति यदि वह सर्वशुद्ध और प्राचीन छन्दशुद्धि महत्त्वपूर्ण नही, उनकी स्वाभाविकता, सहज सिद्ध होती हो, तभी और केवल तभी उसे आदर्श मानकर, अर्थ-बोधकता और विविधता, जो कि उनका वास्तविकफिर उसमे जो भी शब्दरूप प्राप्त होते हो, उन्हें स्वीकार सौन्दर्य है, महत्वपूर्ण है। करके; अथवा अनेक भिन्न प्रतियो मे से पाठो का चयन अत: सम्बद्ध पक्षो से मेरा अतिविनम्र/करबद्ध निवेदन करके, जिस पाठ को मूलरचना में स्वीकार किया जाय, है कि ग्राग्रह छोड़कर आगम में प्राकृत का प्राकृतपन आपके अतिरिक्त शेष सभी पाठो को निरपवाद रूप से विनम्र/सरलभाव से सुरक्षित रहने दें। पादटिप्पण मे देने का अकाट्य सिद्धान्त है। फिर वे पाठ यह अवांछनीय विवाद अविलब समाप्त हो इसी छन्द, व्याकरण अर्थ और सपादक की रूचि के चाहे जितने सदाकक्षा और हादिक सद्भावना के साथ। अनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, सपादक को अपनी ओर आपका स्नेहाकांक्षी ३ पाठ-परिवर्तन करने का कथमरि अधिकार नही है। (डॉ.) विमल प्रकाश जैन जो जो भी कहना हो, वह अपना अभिमत या सुझाव (रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर)
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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