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________________ प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में प्राप्त कुछ पत्र २६ आदरणीय पं० पप्रचन्द्र जी शास्त्री, (सम्पादक अनेकान्त) है। फिर प्राचीन आचार्यों के ग्रन्थों की मल भाषा को शुद्ध प्रणाम ! करके उसे विकृत करना तो एक बहुत बड़ा दुस्साहस है। स्व. परमपूज्य गुरुवर्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री के जैन शौरसेनी आगमों की भाषा समस्त प्रारुतों से बाद आप ही एक ऐसे सजग एव शाश्वत प्रहरी हैं, जो प्राचीन है इसलिए उसके रूपो में विविधता का होना संकटग्रस्त मुल जिनवाणी की रक्षा कर रहे हैं। वास्तव स्वाभाविक है। १२वीं शताब्दी के वैयाकरणों के व्याकरण मे आप्ताभिमान-दग्ध तथाकथित विद्वान मूल ग्रन्थों की के नियमों के अनुरूप बनाना सर्वथा अनुचित है। आचार्य भाषा के परिमार्जन करने के बहाने उसे विकृत कर देते हेमचन्द्र ने स्वय प्राकृत व्याकरण में आर्षम् ११३ सूत्रके हैं। ऐसी घिनोनी प्रवृति का डटकर मुकाबला करना द्वारा कहा भी है कि पार्ष अर्थात्-आगम सम्बन्धी शब्दों चाहिए और यथा सम्भव एक सम्मेलन भी बुलाकर इस की सिद्धि मे प्राकृत व्याकरण के नियम लागू नहीं होते विषय मे कार्यकारी निर्णय लेना चाहिए। हैं। प्राकृत व्याकरण के नियम नाटको, काव्य साहित्य आदि पर ही लागू होते हैं। अतः सशोधन के बहाने जैन आजतक अनेक मान्य मनीषियों ने महत्वपूर्ण ग्रन्थों का शो सेनी को विकृत करना उचित नहीं है। मैं आपके सम्पादन किया है लेकिन किसी ने मूल ग्रन्थ की भाषा विचारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। को शुद्ध करके विकृत नही किया है। यह बात दूसरी है आपका: कि जिस बात से हम सहमत न हो उसे पाद-टिप्पणी मे (डॉ.) लालचन्द जैन लिख या ग्रन्थ के अन्त मे परिशिष्ट में अपने विचारो प्रभारी-निदेशक का उल्लेख कर दें। आज अर्वाचीन ग्रन्थों की मल भाषा प्राकृत जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, को शुद्ध करने वालो को भी कोई लेखक पसन्द नही करता वैशाली (पृ० २२ का शेषाश) गोदपुरम, अलातूर, मुंडर, किरणालर आदि स्थानो उत्सव में अष्टमगल द्रव्यों के प्रयोग की सूचना डा. कुरुप से भग्न मन्दिर और भूतिया प्राप्त हुई हैं। पार्श्वनाथ, ने इस प्रकार दी है-"The virgin girls who had महावीर और पपावती की इन मूर्तियो मे से अनेक को observed several rituals like holy bath and सन्दर और सुडोल पाया गया है। केरलचरित्रम् मे यह clad in white clothes proceed with Talappoli उल्लेख है कि तलक्काड मे प्राप्त मूति को यद्यपि विष्णु before the Teypam of Bhagwyti. In festivals मति कहा जाता है किन्तु उसका शिल्प सौष्ठव चितराल and other occasions the eight auspicious artiके जैन शिल्प के सदृश है। श्रीधर मेनन भी जैन मति cles like umbrella, conch, swastik, Purna कला के क्षेत्र में भी जैनों का valuable contribution Kumbh, and mirror are provided for progस्वीकार किया है। perity and happiness as a tradition. This केरल के भगवती मन्दिरों में तेभ्यट्टम् नामक एक custom is also relating to Jainism."
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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