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________________ घ -डॉ॰ लालचन्द जैन, वैशाली -'प्राचीन आचार्यो के ग्रन्थों की मूलभाषा को शुद्ध करके उसे विकृत करना एक बहुत बड़ा दु:साहस है । जैन शौरसेनी आगमों की भाषा समस्त प्राकृतों से प्राचीन है, इसलिए उसके रूपों में विविधता का होना स्वाभाविक है । बारहवीं शताब्दी के वैयाकरणों के व्याकरण नियमों के अनुरूप बनाना सर्वथा अनुचित है । आचार्य हैमचन्द ने स्वयं प्राकृत व्याकरण में 'आर्षम्' सूत्र के द्वारा कहा भी है कि 'आप' अर्थात् आगम संबंधी शब्दों की सिद्धि में प्राकृत-व्याकरण के नियम लागू नहीं होते हैं।' च -पद्मश्री बाबूलाल पाटौदी, इन्दौर ___ 'मृल में तो किसी भी प्रकार की मिलावट बर्दाश्त नहीं हो सकती' छ - श्री अजितकुमार जैन, ग्वालियर 'कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित समयसार और नियमसार' आदि ग्रन्थ आ विमल सागर जी महाराज एवं उपाध्याय श्री भरत सागर जी महाराज ने यह कहकर लौटा दिए कि इन ग्रन्थों में आचार्यों की मूल गाथाओं के शब्दों को बदल दिया है जो आगम सम्मत नहीं है ।' ज -दि० जैन प्रवन्था समिति ट्रस्ट, बीकानेर ___-'मृल आगम की रक्षा का जो प्रयास आपने किया है वह सराहनीय है।' झ -डा० कमलेशकुमार जैन, वाराणसी __-'कुन्दकुन्द आदि पूर्वाचार्यों की प्राकृत परिवर्तन पर विभिन्न विद्वानों का ध्यान गया है और भविष्य में उससे होने वाले खतरों का संकेत भी स्पष्ट हो रहा है । दिगम्बरों द्वारा अपनी ही प्राचीन संस्कृति की इस प्रकार अवहेलना हमारे दिमागी खोखलेपन का नमूना है।'
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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