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मुनि श्री का पुनः वाग्गुप्ति मय उपदेश चला ।
प्रो० गोरावाला : आपको जो एक अन्य ताड़पत्र की प्रति मिली है, उसे 'अनेकान्त', वीर सेवा मन्दिर, को दिला दीजिए।
मुनि श्री : मैं ५० हजार लोग भेजकर वीर सेवा मन्दिर का घिराव करा सकता हूं । या ५० पंडितों के अभिमत (पंफलेट) रूप में छपवाकर बांट सकता हूं और उस से वीर सेवा मन्दिर की भी वही हानि होगी जो आयकर में शिकायत करके इन्होंने 'कुन्दकुन्द भारती' की की है। अभी तक हमारा एक करोड़ का फण्ड हो गया होता अगर अनेकान्त ने इसके खिलाफ न लिखा होता ।
प्रो० गोरावाला : यह सब हमारे गुरुओं के अनुरूप नहीं होगा । अत: आप लिखें कि अमुक ताड़पत्री प्रति को आधार मानकर पं० बलभद्र जी का संस्करण प्रकाशित किया गया है तथा पूर्व-प्रकाशनों को त्रुटिपूर्ण, भूलयुक्त या अशुद्ध कदापि न लिखें क्योंकि यह लिखना जिनवाणी के लिए आत्मघातक होगा । जब एक ही ग्रंथ में पोग्गल पुग्गल, आदि रूप 'बहुलं, प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति' रूप से पाये जाते हैं तो वे तदवस्थ ही रहें । एकरूपता के लिए एक भी पद बदला, घटायाबढ़ाया न जावे, जो अधिक उपयुक्त लगे उसे 'अत्र संजदः प्रतिभाति' करना पादटिप्पणी में, विश्वमान्य संपादन-प्रकाशन-संहिता है । व्याकरण के आधार पर संशोधन और वह भी दूसरे (साहित्यिक-संस्कृत या शौरसेनी) के आधार पर न हुआ है और न होगा । महाराज। आपको कोई प्राकृत-व्याकरण प्राकृत में मिला ?
मुनि श्री ने प्रकारान्तर हेतु जयसेनी टीकागत सूत्रों को कहा ।
प्रो० गोरावाला : सब प्राकृत-व्याकरण संस्कृत में हैं । ये ब्राह्मणयुग की देन है जिसने लघु भाषाओं को अप-भ्रंश बनाया है । तीर्थ-राज वीरप्रभु से आगम रूप में आया तथा गणहरंगथिपय, श्रुत
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