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________________ नत मस्तक होते हैं और सदा होते रहेंगे । आचार्य विद्यानन्द जी के प्रवचन से प्रभावित होकर श्री अजितप्रसाद जैन ने "शोधादर्श" जुलाई 93 में "अथ समयसार शुद्धिकरण' शीर्षक से जो लेख छापा है उसे पाठकों की जानकारी हेतु अविकल दे रहे हैं - अथ समयसार शुद्धि प्रकरण कुन्दकुन्द भारती के प्रकाशन में समयसार के मूल पाठ में संशोधन पर आचार्य श्री विद्यानन्द महाराज से प्रो० खुशाल चन्द्र गोरावाला की चर्चा: पं. बलभद्र जी और पं० पद्मचन्द्र जी के बीच हुए पत्राचार को देख-समझकर प्रो० गोरावाला ने १ मई, १९९३, को दिल्ली में मुनि श्री से भेंट की थी। प्रो० गोरावाला : Pischel आदि प्राकृतविदों के अनुसार जैनशौरसेनी वैदिक-संस्कृत के समान प्राचीन तथा पृथक है, साहित्यिकशौरसेनी से, साहित्यिक-संस्कृत के समान । अतएव जैसे वैदिकसंस्कृत में, साहित्यिक-संस्कृत के आधार पर आज तक एक भी रूप नहीं बदला गया है, वही हमें करना है जैन-शौरसेनी के विषय में । मनि श्री ने अपनी भाषा-समिति में आधे घंटे तक अपनी साधना, आगमज्ञान और शौरसेनी के विशेषाध्ययन पर उपदेश दिया । __ प्रो० गोरावाला : मैं 'संजदपद-विवाद' के समय से ही मूल की अक्षुण्णता का लघुतम पक्षधर हूँ, अतः जैन-शौरसेनी या कुन्दकुन्दवाणी की अक्षुण्णता के लिए 'अनेकान्त' का प्रेरक हूं। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ-निर्मित दोनों पंडितों में ममत्व भी है, तथा ये दोनों आपके भी कृपाभाजन रहे हैं । ये व्याप्य हैं और आप व्यापक हैं । ऐसे प्रसंगों में व्यापक (आप तथा श्रमणमुनि) की अधिक हानि हुई है । 13
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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