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________________ जिनागमों का संपानन रही बात व्याकरण की, सो व्याकरण गणित को तरह एक ऋत विज्ञान ( Exact Science) तो है नहीं कि जहां दो व दो चार ही होते हों । व्याकरण के प्रायः सभी नियम अपने-अपने अनुमान व अधूरे पोथी ज्ञान के बल पर बनाए गए हैं, उन्हें पूर्णता की संज्ञा नहीं दी जा सकती। वैयाकरण, निष्णात (experts) होते हैं और सब या अधिक की बात छोडिए दो निष्णात भी एकमत नहीं होते हैं। और तो और, वर्षों की बहस के बाद भी जैनो के मूल मन्त्र नवकार मे "न" शुद्ध है या "ण" शुद्ध है इसका निर्णय वैयाकरण नहीं कर पाए है जबकि डॉ० चन्दा ने प्रस्तुत उद्देशक में ३५ पाठ भेद केवल "ग" को 'न' मे बदल करके किए हैं जिनमे एक भी आदर्श सम्मत नहीं है। साथ मे हमे यह नही भूलना है कि व्याकरण तो मच पर बहुत बाद मे आती है । व्याकरण के नियम रचित साहित्य पर आधारित होते हैं शास्त्रों व अन्य ग्रन्थों में हुए प्रयोगों के अनुसार पन्डितो द्वारा पीछे से पढे जाते हैं। ऐसी परिस्थिति मे यह कहना कि आगमकारों ने व्याकरण की अवहेलना की है किवा आगम-रचना व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध हुई है, उतना ही हास्यास्पद है जितना कि यह कहना कि हमारे दादों, पडदादो ने हमारे पोतो पड़पोतो का अनुकरण नही किया । २५ - प्राप्ति के बाद भगवान् ने तीर्थं की प्ररूपणा पण्डितों की भाषा मे नही की वे लोकभाषा मे बोले नाकि आम प्रजा आप्त वचनों को सरलतापूर्वक सही रूप मे समझ सके । प्रस्तुत उद्देशक मे ७ भेद विभक्ति परिवर्तन करके, २ भेद अनुस्वार का लोप करके और १ भेद ए का लोप करके व्याकरण की दृष्टि से १० पाठ भेद किए गए हैं। जिनमे केवल एक भेट ही आदर्श सहमत है जो ऊपर गिनाया जा चुका है। थोडी देर के लिए यह मान भी ले कि सभी व्याकरण डा० चन्द्रा से एकमत हैं और यह भी मान ले कि भगवान् महावीर की तीर्थ प्ररूपणा से पूर्व डा० चन्द्रा की यह नियमावली दृढ़तापूर्वक प्रभाव में थी तो भी हमारा कथन है कि आगम इतनी उच्चकोटि की सत्ता व अधिकारिक स्तर लिए हुए है कि बेवारी उपकरण की वहा तक पहुच ही नहीं है। सर्वज्ञों के वचन व्याकरण के अधिकार क्षेत्र से परे व बहुत-बहुत ऊंचे है। पाणिनी का व्याकरण वेदो पर लागू नही होता अर्थात् आर्ष प्रयोग के अपवाद सर्वमान्य हैं। स्टूडियो में निदेशक जैसे एक्टर (अभिनेता) को अथवा छड़ीधारी अध्यापक जैसे छात्र को कहता है कि 'तू ऐसा बोल' जैसा मुंह में भाषा डूबने का अधिकार या करण को नहीं है कि तीर्थकर व गणधरो को कहे कि आपको इस प्रकार बोलना चाहिए था ! इसे भाप वैयाकरणो का दुर्भाग्य मानें या जनता का सोभाग्य कि ज्ञान अनएव भकरण के पति से हमारा अनुरोध है कि ज्ञानी (जो वैयाकरण नहीं होता है) व पण्डत के बीच इस भारी फर्क को समझे और अपने व्याकरण ज्ञान को सामान्य शास्त्रो. प्रत्थो व अन्य साहित्य तक ही सीमित रखें - आगमो पर थोपने की कोशिश न करे । तिस पर भी उन्हे आप्न वचनो मे भाषाई या व्याकरणीय दोष अतीव रूप मे खटकने हो तो "समरथ को नदी दोष गाई" इस चौपाई मेमना से प्रोफेसर घाटगे ने अपने अमेठीक तिवा है कि ऐसे प्रयासो का उपयोग शब्दकोष बनाने मे लिया जाएगा कि उपलब्ध पाठो में प्राचीनतम पाठ नसा है। मुनि श्री जम्बूविजय जी ने भी अपने अभिप्राय मे लिखा है- " मे उपर उपर थी तमारु पुस्तक जो अनुनामिकपरसवर्ण वाला पाठी प्राय: MSS मा मलता जा नयी एटेल ञङ् वगेरे वाल पाठो मारावी अपान, समारो एक विद्धान छे के MSS मां होय तेज पाठ आयो" लेखक ने भी जंमलमेर, पूना, काठमण्ड़, जोधपुर, बाडमेर, जयपुर आदि भंडारों की हजारो प्राचीन प्रतियो का अवलोकन, सूचीकरण व प्रतिनिधिकरण किया है पर प्राकृत ग्रन्थों मे परसवर्ण अनुनासिक लिखने को पद्धति का अभाव हो पाया है - अनुस्वार मे ही काम चनाया गया है। लेकिन डा० चन्द्रा ने इस पद्धति को अपना कर प्रस्तुत उद्देशक में १६ स्थानों पर पाठभेद किए है जिनमें से एक को आदर्श सम्मत नहीं हैं । यहा पर यह भी उसनीय है कुल ११६ पाठ भेदो मे केवल 'आउ' को छोडकर शेष १५ पाठ भेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ मे कार्ड फर्क नहीं पड़ता । और आउसते ( कही अनुम्वार सहित है कही रहित ) इस पाठ
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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