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ई -क्षुल्लकमणि 105 श्री शीतल सागर जी महाराज
- 'मूल शब्दों, वाक्यों में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए । कोष्टक या टिप्पणी में अपना सुझाव दिया जा सकता है ।' उ - 105 आर्यिका विशुद्ध मती जी
-'मूल में सुधार भूल कर नहीं करना चाहिए अन्यथा सुधरतेसुधरते पृरा ही नष्ट हो जाएगा ।' ऊ- 105 आर्यिका श्री ज्ञानमती माता जी
-यदि कदाचित् कोई पाट बिल्कुल ही अशुद्ध प्रतीत होता है तो भी उसे जहाँ का तहाँ न सुधार कर कोष्ठक में शुद्ध प्रतीत होने वाला पाठ रख देना चाहिए । आजकल मृलग्रन्थों में संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन की परम्परा चल पड़ी है उसकी मुझे भी चिन्ता है ।' ए -पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ____ -'ग्रन्थों के सम्पादन और अनुवाद का मुझे विशाल अनुभव है। नियम यह है कि जिस ग्रन्थ का सम्पादन किया जाता है उसकी जितनी सम्भव हो उतनी प्राचीन प्रतियां प्राप्त की जाती हैं । उनमें से अध्ययन करके एक प्रति को आदर्श प्रति बनाया जाता है । दूसरी प्रतियों में यदि कोई पाठ भेद मिलते हैं तो उन्हें पाद टिप्पण में दिया जाता है ।' ऐ -पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री ___-पूर्वाचार्यो के वचनों में, शब्दों में सुधार करने से परम्परा के बिगड़ने का अन्देशा है । कोई भी सुधार यदि व्याकरण से या विभिन्न प्रतियों के आधार पर करना उचित मानें तो उसे टिप्पण में सकारण उल्लेख ही करना चाहिए न कि मूल के स्थान पर ।'
ओ -पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री ____ -संशोधन करने का निर्णय प्रतियों के पाठ मिलान पर नियमित होना चाहिए न कि सम्पादक की स्वेच्छा पर ।'
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