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________________ १०, ६, कि है। ईमा पूर्व ३६४वें वर्ष में आचार्य भद्रबाहु अपने भुनि ले आई। पता चलने पर उदयन ने चंडप्रद्योत पर आक्रसंघ महिन पधारे थे और उन्होने चन्द्रगुप्त मौर्य को जो मण कर उमे बन्दी बना लिया। पश्चात चण्डप्रद्योत ने उस समय यही थे, उपमा दिया था। (ग्वालियर - मुक्त होने पर जीवन्त स्वामी की वह प्रतिमा विदिशा मे टियर--प्रशम भाग)। महाभारत में इल्लिखित दशणं स्थापित स्थापित कर दो। यह प्रतिमा भगवान मावीर स्वामी हो प्रदेश विदिशा के अपमपाम का ही प्रदेश है। "त्रिषष्टि की थी। बाद मे चन्दनाष्ठ निर्मित यह प्रतिमा यहाँ कई शमाया पूम्ब" के अनुसार भगवान महावीर का समय- वर्षों तक विगजमान रही। कारण विदिशा आया था। तीर्थङ्कर नेमिनाथ के समव- भगवान नेमिनाथ ने गिरनार पर्वत पर ५६ दिनों शरण के विदिशा पाग्ने का भी आगम मे उल्लेख है। तक घर तप कर ज्ञान प्राप्त किया। तत्पनात निहार स्वामी ममत ट्रनार्य ने विदिशा में हु! वाद-विवाद में हुए उन्होंने अपना पहला उपदेश यादव को दिया। मजनो को परास्त कर उन्हें जैन धर्म में दीक्षित किया पश्चात् धर्मचक प्रतन र ग्ते हा वे भदिनपूर पधारे और था। इस सम्बन्ध मे जैन बद्री के एक शिलालेख का यह देवकी के छह पुत्रो को- जो कम के भय से विदिशा के प्रलोक पठनीय है : एक वणिक के यहाँ 'छप कर पल रहे थे - दशा दी। पूर्व पाटलिपुत्र नाम नगरे भेग मा ताडिता। (गिरनार गौरव - डा. कागनाप्रस द)। भगवान नहापश्चान्माल्भव मिधु दपक विषय कांचीपुरी वैदशे॥ वीर के ममवशरण व दशाणपुर-विनिशा के शासक प्राप्नोह करहाटक बहुभटविद्योत्कट सकटम् । दमार्णभद्र द्वारा उनके अमृत पूर्व स्वागन की गाथा भी वादार्थी विचराह नरपते. शार्दूल विक्रीडितम् ॥ ग्रन्थो में प्राप्त है। उसमे यह भी उल्लेख है कि महागज पाली ग्रन्थों में इस स्थान का नाम बेसनगर या दशाणभद्र ने भगवान समवशरण मे मुनि दीक्षा लेकर चैत्येनगर दिया गया है। बारहवी शताब्दी के चालुक्य घोर तप किया था। शुग गुप्त व परगार कान मे काल में इसका नाम भल्ल स्वामिन हो गया था । ब्राह्मण विदिशा मे जैर संस्कृति के विकास की गाया आज भी ने इसका नाम भद्रावती या भवपुर लिखा गया है। काफी विस्तार से इतिहाम मे उपलब्ध है। ईसा की पहली शताब्दी में यहाँ नागों व सातवाहनो का राज्य था। एक पौराणिक कथा के अनुसार यहाँ हैहय- उवयगिरि: वंशी शासको का की राज्य रहा है। रामायण से पता विदिशा से पाच किलो दूर मन्दिर दक्षिण दिशा में चलता है कि राम के लघु प्राता मन ने हम प्रदेश को वेत्रवती व वेस नदियो के मध्य विध्यान पर्वन माना यादवो से मुक्त कर अपने पुत्र सूवाह को इस प्रदेशका का एक भाग उत्तर दक्षिण दिशा में स्थित है। यही पवन किया था। सम्राट अशोक को तो विदिशा शृखला उदयगिरि नाम से जानी जाती है। गणो मे उन्होने यहा को एक वणिक कन्या से इसके अनेक नाम पाए जाते है। वैदिम गिरि, चैत्यागिरि, विवाह किया था और और बहुत समय तक यहाँ निवास रथावतं कृजरावत एव दशार्ण कुट आदि अनेक नामो से जात प्राचीन शिलालेखो में भी इसका समय-समय पर उल्लेख मिलता है। आर्यवच विदिशा का उल्लेख मिलता है। स्वामी के कुजरावर्त पर्वत पर तप कर मोक्ष प्राप्त किया परतावर ग्य-विशष्ट शलाका पुरुष" के अनुसार या धर्मामृत ग्रन्थ के अनुसार घनद नाक मुनिराजन समान धर्म का सर्वाधिक प्रमार अशोक के पौत्र सम्प्रति भी विदिशा के निकट उदगिरि पर तपायानी के शासन काल में हुआ था। इसी काल में भवति के उदयगिरि दो किलो मीटर लम्बी है। इसको शामक चहप्रद्योत न मिधु सोवीर नरेश उदयन का एक तम ॐाई ३५० फुट है। इसके पूर्वी ढाल पर सन्दर दासी का अपहरण कर लिया। दासी अपने साथ काट कर या प्राकृतिक चलाधयों .. सिसित जीवन्त स्वामी की प्रतिमा भी पुरा कर गुफाबो का निर्माण किया पया है। इनमे गफा ,
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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