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________________ पुरानी यादें भीर के द्वारा दी गई उपाधियो के विषय मे सभी एकमत २. क्या मुलमन्त्र बदल मकेगा? नही होते-कुछ न कुछ लोग उसे नकारने वाले अवश्य ही हमने मल आगम-भाषा के शब्दो में उलट-फेर न होते हैं। करने की बात उठाई तो प्रबुद्ध वर्ग ने स्वागत कर उक्त कथन से हमारा तात्पर्य ऐसा नही कि हम समर्थन दिया--सम्मतियां भी आयी। बावजूद इसके अभिनन्दनों या उपाधियो का जनाजा निकाल रहे हो। हमारे कानों तक यह शब्द भी आए कि-- शब्दरूप बदलने अपितु ऐसा मानना चाहिए कि हम गुण-दोषों के आधार से तो अर्थ में कोई अन्तर नही पड़ा । उदाहरण के लिए पर ही रूप में किसी सम्मान के पक्षपाती हैं-सम्मान 'लो' या 'होइ' के जो अर्थ है वे ही अर्थ 'लोगे' या 'होदि' होना ही चाहिए। पर, हम ऐसे सम्मान के पक्षपाती है के हैं और आप स्वय ही मानते हैं कि अर्थ-भेद नही हैजो किमी ऐसे अधिकृत. तद गुणधारक, पारखी और अभि नपक, लवण, सेन्धव भी तो एकार्थवाची हैं -कुछ भी नन्दित के द्वारा किया गया हो-जिनकी कोई अवहेलना कहो । स पी से कार्य-मिद्धि है। न कर सके। उदाहरण के लिए जसे मैं 'विद्यावाचस्पति' गत सुनकर हमे ऐसी बचकानी दलील पर हमी जैसी नही-शास्त्रो में मूढ हूं और किसी को 'सकल शास्त्र अ गई । हमने सोचा -यदि अर्थ न बदनने से ही सब पारगत' जैसी उपाधि से निभपित कने का दु साहस करूँ ठीक रहता है तब तो कोई णमो अरहनाण' मत्र को (यद्यपि ऐसा करूंगा नही) तो आप जैम ममझदार लोग 'अस्सलामालेकं परहंता' या 'गडमोनिग टू अरहंताज' भी मुझे मूर्ख न कह 'महामूर्ख' ही कहेंगे और उम उपाधि को बोल सकेगा --- वह भी मूलमत्र हो जायेगा। क्या कोई भी बोगस, जाली, झूठी पोर न जाने किन-किन सम्बो ऐमा स्वीकार करेगा-जपेगा या लिख कर मदिरों में धनों से सम्बोधित करेंगे ? और यह मब इसलिए कि मैं टांगेगा या इन्हे मुलबीज मंत्र मानकर ताम्र यत्रादि मे विषय मे अकिंचन हं, मुलगे तदर्थ योग्यता, परख नही अकिन करायेगा? कि ये अग णमोकार मलमत्र का है। है। फलत: क्योंकि इनके अर्थ मे कही भेद नही है । सारीष्टि में वे ही उपाधियाँ और अभिनन्दन- पर, हमने जो दिशा-निर्देश दिया है वह अर्थभेद को पतियक्त और प्रामाणिक है जो तवगुणधारक किसी अधि• लेकर नही दिया-भाषा की व्यापकता कायम रखने और कत, अभिनन्वित और पारखी व्यक्ति या समुदाय की ओर अन्य की रचना मे हस्तक्षेप न करने देने के भाव में दिया भनिए गए हों और जिनका दाता (व्यक्ति या समाज) है। ताकि भविष्य में कोई किसी अन्य की रचना को किसी पूर्वाभिनन्दित व्यक्ति या समाज द्वारा कभी अभिनदिन बदलने जैसी अधिकार चेष्टा न कर सके । कयोकि यह सोचका हो। उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में बटने वाली तो सरासर परवस्तु को स्व के कब्जे मे करके उसके रूप उपाधियो या अभिनन्दनो और विभिन्न पोस्टगे की डिग्रियो को बदल देना है ताकि दावेदार उसकी शिनासन ही का स्थान या महत्त्व कब, कैसा और कितना है ? है भी न कर सके और वह सबूत देन से भी महरूम हो जाय । या नही ? जरा मोचिए ! कही वर्तमान के पदवी आदान- हाँ, यदि कदाचित् कोई व्यक्ति किसी का रचना मे प्रदान जैसे उपक्रम, गुटबाजी, अहं-वासना था पैसे से अशुद्धि या अशुद्धि का मिलाप मान । हो तो सर्वोत्तम रित तो नही है? यदि हा. तो 'अह' के पोषक ऐसे उप- औचित्य यही है कि वह लोक-प्रालित रीतिवत -किसी क्रमो पर ब्रेक लगाना चाहिए। फिर, माप जैसा सोचे एक प्रति को आदर्श मानकर पूरा-पूग छपाए और अन्य सोचिए । हां, यह भी सोचिए कि पूर्वाचायो को उपाधियो प्रतियो के पाठ टिप्पण म दे । जैसा कि विद्वानो का मत और अभिनन्दनों की प्राप्ति मे भी क्या हम चालू जैसी है। दूसरा तरीका है-वह पूर्व प्रकाशनो को मलिन न 'तच्छ' परम्परा की कल्पना कर उनके स्तर की भी अव. कर स्वय उस भाषा में अपनी कोई स्वतन्त्र प्रस्थान हेलना के पाप का बोझ अपने सिर लें? करे। क्या ठीक है ? जरा सोचिए ? .-सम्पादक
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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