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________________ १२. वर्ष ४६, कि०३ अनेकान्त सर्प फणों से युक्त, शत्रुओं को जीतने वाले, जिन श्रेष्ठ काल मे तीर्थङ्कर शीतलनाथ का एक विशाल मन्दिर था पार्श्वनाथ को प्रतिमा, शमदमयुक्त शकर नामक यति ने जिसमे ये प्रतिमाएं विराजमान थी व उसी जिनालय के बनवाई जो आचार्य भद्र भूषण आर्य कुनोत्पन्न आचार्य समक्ष यह कल्पवृक्ष निर्मित शीर्ष महिन स्तम्भ स्थापित गोशर्म मुनि पा शिष्य था । दूसरो के द्वारा अजेय, शत्रुओं था। का विनाश करने वाले अश्वपति मंघिल भट और पद्मावती तीर्थदर शीतलनाथ के निर्वाग दिवस --आमोज बदी का पूत्र था। शकर इस नाम से विख्यात और यति मार्ग अष्टपी को स्थानीय जैन समाज एक मेले के रूप मे भगमे स्थित था। वह उत्तरकुरुओ के सदृश उत्तर उत्तर दिशा वान को तपोभूमि उदयगिरि पर एकत्रित होकर एवं श्रेष्ठ देश मे उत्पन्न हुआ था। उसके इम पाचन कार्य मे गफा नं० २० में विराजमान उसके चरणो का भक्ति-भाव जो पूर्ण हो वट में रूपो गाओ के क्षा के लिए हो। पूर्वक पूजन अर्चन कर तथा लड्डू चढ़ा कर उनका निर्वाण विदिशा उदयगिरि मार्ग के मध्य दुर्जनपुरा नामक महोत्सव मनाता है। इस पावन अवमर पर उदयगिरि एवं स्थान से कुछ वर्ष पूर्व तीन पद्यामन प्रतिमाएं हल चलाते आस-शस का सम्पूर्ण वन प्रदेण भगवान श्री शीतलनाथ हा प्राप्त हुई थी। नौथी सदी ईस्वी में निर्मित ये प्रति- के जयघोष से गंज उठता है। मायें महाराज रामगुप्त के काल की है। इनमे एक प्रतिमा विदिशा की अति प्राचीन जैन मांस्कृतिक गौरवशाली तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ व दूसरी पुष्पदंती है। तीसरी प्रतिमा परम्पग, विदिशा में निमित दम जिनालयों में श्री शीतलके संहित होने से उसका विन्द व लेख नष्ट हो चका है। नाथ नामांकित दो जिनालय जिनमे किले में निमिनमति के नीचे अंकित लेखो मे महाराजाधिराज रामगुप्त का श्री शीनाथ जैन मन्दिर" अति विशाल एव लग ग नाम अकित है। ये प्रतिमाएँ प्रारम्भिक गुप्तकाल का २५० वर्ष प्राचीन है, उदयगिरि गुफा न० . . मे विराजप्रतिनिधित्व करती है एवं इनका समाालीन मथु । वला मान भगवान क सातिशय चरणचिन्ह तथा ५०-६० वर्षों से काफी साम्य है। प्रतिमा के पाद मूल मे उन्कीर्ण लेखों से आयोजित निर्वाण दिवस मेला, अनेक शास्त्रीय प्रमाण से रामगप्त द्वारा जैन धर्मावलम्बन एवं जैन धर्म के प्रति एवं प्रतेक इतिहास विज्ञ विद्वानो का अभिमत --मब उनकी आस्था पकट होती है। मिलकर हिलपुर - वर्तमान विदिशा को तीर्थङ्कर शीतल इसी क्षेत्र में एक स्तम्भशीर्ष भी प्राप्त हुआ है जिस नाथ के गम, जन्म, दीक्षा व तप चार वल्याणको नो पावन पर कल्पवृक्ष वी अनुकृति उत्कीणित है। कल्पवृक्ष एक भमि होने का गौरव प्रदान करते है। चौकी पर स्थित है व इसकी ऊंचाई ५ फुट ६ इच है। वर्तमान कालिक परम सन आचार्य श्री विद्यासागर वक्ष पर मुद्राओ से भरे पात्र एवं लटकती हुई थेलियाँ एव उनके परम शिष्य मुनि श्री क्षमासागर, प्रमाणसागर, इसके कल्पवृक्ष नाम को साथक करता है । वतमान म यह समता सागर के आशीर्वाद मे आगामी कुछ ही वर्षों मे जीर्ष वलकत्ता के भारतीय कला संग्रहालय में प्रदोशत है। विदिशा अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त करने जा कल्पवृक्ष तीर्थङ्कर शीतलनाथ का लांछन है। यह स्तम्भ रहा है। एवं अनेक दिगम्बर जैन विशाल प्रतिमाएं जो यहाँ प्राप्त --राजकमल स्टोर्स हुई हैं--इस तथ्य को सुनिश्चित करती है कि यहां प्राचीन विदिशा अमृत-वचन जीवन में वचनों का सर्वाधिक महत्त्व है जब हम अपने विचार प्रकट करते हैं तो वे दूसरों पर प्रभाव डालते हैं और हमारे मन के छिपे भावों का प्रकटोकरण करते हैं। वचनों में अगाध शक्ति होती है। कहा भो है : --- वाणी ऐसी बोलिए, मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे, आपे शीतल होय।। यह कितना सुन्दर कथन है हमें आठ मदो से रहित होकर हित-मित-भाषी वचन बोलना चाहिए। जिनको बोलने से स्वयं शीतलता मिलती है तथा दूसरों को भी शीतलता प्राप्त हो जाती है।
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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