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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वर्ष 46 कि 4 वीर-निर्वाण संवत् २५१९, वि० सं० २०५० अक्टूबर-93 वर्ष 47 कि० । पारम्परित मूल आगम रक्षा विशेषांक
मार्च-94 जिनवाणी स्तुति देवि श्री श्रुतदेवते भगवती त्वत्पाद पंकेरुहद्वन्दे यामि शिलीमुखत्वमपरं भक्त्या मया प्रार्थ्यते । मातश्चेतसि तिष्ठ मे जिनमुखोद्भूते सदा त्राहि माम् , दृग्दानेन मयि प्रसीद भवती संपूजयामोऽधुना ॥
अर्थ – हे देवि, हे श्रृतदेवते, हे भगवती, तेरे चरण कमलों में भौरे की तरह मुझे स्नेह है । हे माता, मेरी प्रार्थना है कि - तुम सदा मेरे चित्त में बनी रहो । हे जिनमुख से उत्पन्न जिनवाणी, तुम सदा मेरी रक्षा करो और मेरी ओर देखकर मुझ पर प्रसन्न होओ । मैं अब आपकी पूजा करता हूँ।
शारदा स्तवन वीर हिमाचल तें निकसी, गुरु गौतम के मुख-कुंड ढरी है। मोह महाचल भेद चली. जगकी जड़तातप दूर करी है ।। ज्ञान पयोनिधि मांहि रली, बहभंग-तरंगनिसों उछरी है। ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलिकर शीस धरी है ।। या जग मंदिर में अनिवार अज्ञान अंधेर छयो अति भारी । श्री जिनकी धुनिदीप-शिखासम, जो नहिं होत प्रकाशन हारी ।। तो किस भांति पदारथ पांति कहां रहते लहते अविचारी । या विधि संत कहैं, धनि हैं, धनि हैं जिन बैन बड़े उपकारी ।। जा वाणी के ज्ञान से सूझै लोकालोक । सो जिनवाणी मस्तक चढौ सदा देत हूं धोक ।।