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________________ अशुद्ध है। यह बात केवल 'रयणसार' के मुद्रित संस्करणों के संबध में ही नहीं, कुंदकुंद के सभी प्रकाशित ग्रन्थों के बारे में है।' - पृ० 7 'रयणसार' में उक्त पंक्तियाँ लिखते हुए माननीय सम्पादक को यह भी ध्यान न आया कि मन् 74 में कुंदकंद भारती (जिसके संस्करणों को ये शुद्ध कहते हैं) से प्रकाशित 'रयणसार', जिसे भट्टारक चारुकीर्ति जी द्वारा प्रदन ताडपत्रीय प्रति पर अंकित प्रति की चित्र अनुकृति कहा गया है तथा जिस रयणसार के पुरा-वचन में सिद्धान्तचक्रवर्ती, समय प्रमुख, प्रवचनपरमेष्ठी उपाधिधारी आचार्य श्री विद्यानन्द जी द्वारा (आगम भाषा मान्य) निम्न गाथा उद्धृत की गई है ... 'दव्वगुण पजएहिं जाणड परसमय ससमयादि विभेयं । अप्पाणं जाणइ सो सिवगइ पहणायगो होइ ।।' उक्त गाथा को बदलकर उक्त संपादक जीन शुद्धका निम्नम्प में कर सिद्ध कर दिया है कि 'समय प्रमख्ख' भी गलत बयानी कर सकते हैं और कुदकुंद भारती' का प्रकाशन भी अशुद्ध है । पर हम मानने को तैयार नहीं कि 'सिद्धान्त चक्रवर्ती पद पर स्थित महान विभूति रामी गल्ती कर सकेंगे । इनके द्वारा बदला रूप नीचे दिया जा रहा है । विज्ञ देखें -- 'दव्वगुण पज्जयेहिं जाणदि यग्यमय यममयादि विभेदं । अप्पाणं जाणदि यो सिवगदि पहणायगा होदि ।।' संपादक जी द्वारा उक्त 'पुगवाक' में आगम भाषा को अत्यंत भ्रष्ट और अशुद्ध घोषित करना तथा पूर्वजों को भाषा से अजान बताना, जिनवाणी और पूर्वजों का घोर अपमान था । यदि ऐसा अपमान किमी अन्य के धर्मग्रन्थ या उसके विद्वान् का ( उस संबंध में) हुआ होता तो 39
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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