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________________ गाथा तिमिर हरा जइ विट्ठो जणस्स दीवेण गस्थि कायग्वं । तह सोक्खं सयमादा विषया कि तत्थ कुम्वति ॥६७॥ काव्य तिमिर विनाशक हो यदि दृष्टि, दीपक का क्या करना ? तू अनन्त की दीप शिखा है, बुझने से क्या डरना ? तिमिर खोजने पर न मिलेगा, यदि तू सम्यक विट्रो । तिमिर हरा जइ दिट्ठी ॥ तरस रहे बट-वक्ष छांह को, किससे मांगे छाया । बदरी नीर बिना घिर आई, मन पंछी है प्यासा । सरिताओं के सूखे आंचल, तल की दिख रही मिट्टी। तिमिर हरा जइ विट्ठी।। काया के मन्दिर में आकर, अगर अमर है ठहरा । बाहर देखो घात लगाये, मरण दे रहा पहरा। अपनी ही अर्थी को कांधा, देता मिथ्या विट्ठी । तिमिर हरा जइ दिट्ठी ॥ -मिश्रीलाल जैन, गुना आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.००० वार्षिक मूल्य : ६)१०, इस अंक का मूल्य: १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते।
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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