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यदि वे व्याकरण के हामी हैं तो निम्न शब्दों ( अन्य बहुत से भी) के रूपों को क्यों नहीं बदला -
गाथा 5 में 'चुक्कंज्ज' को 'चाक्कंज्ज' नहीं किया । गाथा 45 में 'बुच्चदि' का 'बोच्चदि' नहीं किया । गाथा 58 में 'मुम्सदि' को 'मोस्सदि' नहीं किया । गाथा 72 में 'दुक्खस्स' को 'दोक्खम्स' नहीं किया । गाथा 74 में 'दुक्खा' को 'दोक्खा' नहीं किया । आदि ।
संशोधक का यह कथन भी गलत है कि उनके पत्रों के उत्तर नहीं दिए गए । उनके 15-2-93 के पत्र के उनर में उनके निराकरण के साथ. महासचिव ने स्पष्ट लिखा कि पण्डित पदमचन्द्र शास्त्री से बात करने पर उन्होंने कहा - "इस विषय में वह पहले ही लिख चुके हैं. उनका अभिमत है कि एक ही ग्रन्थ में एक शब्द को विभिन्न स्थानो पर विभिन्न रूपों में दिया गया है । उनकी दृष्टि में व सभी ठीक है । जिस जगह जिस शब्द का जो रूप प्रयुक्त हुआ है आगे भी वही होना चाहिए । शब्द को बदल कर एकरूपता लाने के चक्कर में मूलरूप में बदलाव से प्राचीनता नष्ट होती है । आवश्यक होने पर कुछ पाठ भेद स्पष्ट करना भी पड़े तो उसे टिप्पणी में दिया जाना चाहिए । मृल गाथा के स्वरूप को बदला नहीं जाना चाहिए । उसे अक्षुण्ण रहना ही चाहिए। यह मत केवल मेरा ही नहीं, अनेक उच्चकोटि के मृर्धन्य विद्वानों का भी है।"
3 मार्च 93 के पत्र में यहाँ से फिर लिखा गया - 'शास्त्री जी का कहना है कि जिस ग्रन्थ में जो शब्द जिस रूप में आया है वहां उसका वही रूप रहना चाहिए । उनका विरोध तो यही है कि व्याकरण की