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करती है । समयसार ग्रंथ में शौरसेनी प्राकृत भाषा के प्राचीनतम रूप के दर्शन होते हैं तथा प्राकृत भाषा के व्याकरण उसके बहुत बाद में रचे गए थे । अत: समयसार की भाषा पूर्णरूपेण व्याकरण के नियमों के अनुरूप न हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । हम प्रोफेसर साहब के अभिमत से सहमत हैं कि उपलब्ध प्राचीन पांडुलिपियों के आधार पर स्थिर किए गए मूल पाठ में व्याकरण, अर्थ आदि की दृष्टि से यदि कोई संशाधन उपयुक्त समझा जाय तो मूल पाठ के साथ छेड़छाड़ न करके उसे पाद-टिप्पणी (Footnote) के रूप में देना ही उचित है।) __इस संबंध में श्री महावीर जयन्ती के सुअवसर पर दि. ३-४-९३ को आयोजित विशाल जन सभा में आचार्य श्री द्वारा व्यक्त किए गए टेपित उद्गारों में उनकी कोपावेश से प्रेरित धमकी को पढ़ कर बड़ा अटपटा लगा । निश्चय ही, भाषा समिति का निरन्तर पालन करने वाले कषाय-जयी महामुनियों की गरिमा में इससे कोई श्री-वृद्धि हुई हो, हमें ऐसा नहीं लगा । पूज्य आचार्य श्री के सारी सभा को विस्मित करने वाले कोपावेश का हम स्वयं भी प्रत्यक्ष दर्शन कर चुके हैं जब उन्होंने श्री श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली के सहस्त्राब्दि महामस्तकाभिषेक के अवसर पर एक विशाल जन सभा में श्री भरत कुमार काला (बम्बई) को भारी कोपावेष में डांट कर मंच से उतरवा दिया था क्योंकि वे श्री काला के द्वारा एक विधवा अजैन महिला राजनेता से प्रथम अभिषेक कराए जाने की पूर्व आलोचना किए जाने से रुष्ट हो गए थे ।
-अजित प्रसाद जैन
प्रबन्ध सम्पादक ('शोधदर्श' 20 से साभार)
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