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________________ आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में जिनदीक्षा : एक अध्ययन --- ------ 0 श्री राजेन्द्र कुमार बंसल जिनवरों का मार्ग वीतरागता का है। आत्मा में शक्ति क्षय हुई उसका एक अश भी यदि प्रात्म स्वभाव मोह-राग-द्वेष की पत्ति न हो और वह अपने ज्ञान- की ओर ढलता तो आत्मा विकार-वासना से मुक्त होकर दर्शन, आनन्द मादि अनन्त दिव्य गुणो मे लीन रहे यही स्वतन्त्र, स्वाधीन एव परिपूर्ण हो गया होता। उसका धर्म है। आत्मा स्वय आनन्द एव शिव स्तरूप है जिनदोक्षा :महान प्रतिज्ञा : किन्तु अनादि मोहजन्य अरुचि, प्रज्ञान तथा कषा पजन्य आत्म साधक के लिए "जिनदोक्षा" शब्द से महज असयम के कारण वह अपने दिव्य स्वरूप से बेखबर रहा ही आ म म्फ ण (रोमाच) हो जाता है। जिनदीक्षा है और पर वस्तुमो में सुख की कल्पना कर उनके सोग राग-द्वेष परिहार का एक महान सकल्प, सर्व प्रकार के या वियोग के प्रयास मे अनन्त काल से भटक रहा है। अन्तर बाह्य परिग्रह के त्याग को प्रतिज्ञा, विषय वासना पर वस्तुओ के कर्तत्व व स्वामित्व के ग्रह कार में जितनी के दमन सर्व पापो से विरत ने के दमन, सर्व पापो से विरत रहने का श्रेष्ठ व्रत होता (१० ३ का शेषाश) है। जिसमें साधक शुद्धोपयोग रूप मुनि धर्म अगीकार कर पने ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में रहता , या साम्य जीवन इस प्रकार सारी प्राकृति सृष्टि के प्रति संवेदनशील बितान की प्रतिज्ञा करता है। महाकवि कालिदास अपने मुकुमार भाबी की व्यजना म प्रतिज्ञा का उल्लंघन महापाप : अहिसा को पर्याप्य स्थान दिया है। जैन मन्दिर के पास बिजनौर, (३.५०) जिनदीक्षाधागे साधक वीतरागी जिनवरो के प्रत्यक्ष सन्दर्भ-सूची प्रतिनिधि होते है जो "वीतरागता" के अशो मे वृद्धि हेतु १. ईसीसिचुम्बिआई भमरहिं गुउमा केसर सिंहाइ । सतत प्रयासरत रहते हैं। इस कारण जिन मार्ग मे साधु ओदसअन्ति दअमाणा पमदाओ सिरीमकमाइ॥ पद को पूज्यनीय मानते हुए उन्हे आयतन, च यगड जिन अभिज्ञान शाकुन्तलम् ११४ । प्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, २. न खलु न खलु वाण. सन्नित्योऽयमस्मिन् । भाव-अरहन्त एवं प्रवज्या जैमा महिमामंडित किया है मृदुनि मगशरीर तूनराशाविवाग्नि । (बोधपाहुड गाथा ३/४) । लोक मे सामान्य प्रतिज्ञा भग क्व बत हरिणकाना जीवित चातिलोल । को महापाप म.ना है। उच्च पद पर रहकर निम्न क्रिया क्व च निशितानिपाता वज्रसारा: शरास्ते ।। करने वाला महापापी होता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा अभि. शाकु ० ११० कि साधु का जन्मे बालक जैमा नग्न रूप होता है। यदि ३. आतंत्राणाय वः शस्त्र न प्रहर्तुमनासि || वह तिलतुष मात्र भी परिग्रह खे तो निगोद का पात्र है अभि० शाकु० ११६ (सूत्र पा० गाथा १०)। आचार्य गुणभद्र ने ऐसे व्यक्ति ४. पुन्याश्रमदर्शनेन तावदात्मान पुनीमहे ।। प्रथम अङ्क पृ० २८ को उलटी कर पुनः बमनभक्षण करने जैसा निन्दनीय ५. विश्वासोपगमादमिन्नतयः शब्द सहन्त मगा। माना है । (आत्मानुशासन गाथा २१७)। आभ० शाव० १११४ उच्च पद धारण कर निम्न प्रक्रिया करने वाले नष्टाशकाहरिण शिशवो मन्द मन्द चरन्ति ॥ वही १।१५ साधक को गुरु मान कर पूजना जिनमार्ग में निन्दनीय, गाहन्ता अस्मद्धनः ॥ वही २७ अनन्त पाप का कारण माना है। कहते है कि सपं के
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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