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________________ यह तर्क सिद्ध बात है कि संसार में विभिन्न भाषाओं के जो भी व्याकरण हैं वे सब (पहिले) अपनी भाषा में ही हैं - संस्कृत का संस्कृत में, हिन्दी का हिन्दी में, गुजराती का गुजराती में, इंगलिश का इंगलिश में, आदि । इस प्रकार प्राकृत में कोई व्याकरण नहीं । क्योंकि व्याकरण 'संस्कार' करने के लिए होता है और प्राकृत में संस्कार का विधान न होने से इस भाषा में इसके संस्कार के लिए किसी व्याकरण की रचना नहीं की गई । दिव्य-ध्वनि में अठारह महाभाषाएँ और सात सौ लघु भाषाएँ गर्भित होती हैं और उसे पूर्णश्रुतज्ञानी, समय प्रमुख (गणधर) द्वादशांगों में विभाजित करते हैं और यह जिनवाणी कहलाती है और परम्परित आचार्य इस वाणी को इसी रूप में वहन करते रहे हैं । आचार्य गुणधर, धरसन, भृतवली. पुष्पदन्त और कुन्दकुन्द आदि इसी सार्वजनीन वाणी के अनुसर्ता रह और उनकी रचनाएं भी इसी भाषा में हुई । इस भाषा में आधी भाषा मगध देश की और आधी भाषा मे अन्य सभी प्रान्तों की भाषाएँ अभेद रूप से गर्भित रहती हैं । इस भाषा का व्याकरण से कोई संबंध नहीं होता । प्राचीन आगमों की यही भाषा है और इस परम्परित भाषा में परिवर्तन या शोधन के लिए किमी को कंदकंद स्वामी या किसी प्राचीन आचार्य ने कभी अधिकृत नहीं किया और अभी तक किसी ने किसी में व्याकरण द्वारा उलट फर करने का दु:साहस भी नहीं किया जैसा अब करने का दु:साहस किया जा रहा है । अब तक भी शास्त्रारम्भ में हम पढ़ते रहे हैं कि --- ___ 'अस्यमूलग्रंथस्यकर्तार : श्री सर्वज्ञदेवास्तदुनरग्रंथकर्तारः श्री गणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचानुमारमामाद्य----आचार्येण विरचितम् ।' ऐसी स्थिति में कैसा व्याकरण और कैमा शाधन? और किसके द्वारा? दिगम्बराचार्यों ने अपनी रचनाओं में एक ही शब्द को विविध रूपों 47
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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