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________________ मोक्षमार्ग में चिन्यनीय विकृतियाँ ३१ नही रखते ? पर प्रासंगिक प्रस्ताव मे अभिषेक के लिए हम कई बार सोचते रहे है कि हमने अपने बुजर्गों अण्डा, मांस, शराब के सेवन न करने और इनसे आजी- और धर्म प्रेमियो की कृपा से चारिन चक्रवर्ती आचार्य विका न कमाने की शर्त थी और यह जैनाचार की नीव श्री शान्तिसागर मुनिगज और उत्कृष्ट श्रावक शुल्लक है-इसे नेता भी चाहते होगे । बहा तो कुछ नेता और पूज्य न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसाद वर्णकि दर्शनो का सौभाग्य स्वय श्री जगद्गुरु (२) कर्मयोगी स्वस्ति श्री चारुकीति प्राप्त किया। पर, आज के हम बुजुर्गों को करनी से भट्रारक स्वामी भी मौजूद थे ओर लेखक के अनुसार क्या उमारी सन्तान को उत्त, आदर्श त्यागियो के स्थान वहाँ किमी ने विरोध भी नही किया। ऐसे मे लेखक के पर ऐसे ही त्यागियो के दर्शन मिलेगे जिनके धम-विरुद्ध मन मे नेतृत्व के प्रति सन्देह की रेखा क्यो ? हम तो अब अपवादों के चर्चे प्राय: जब कभी समानार पत्रों में भी तक लेखक को भी नेतृत्व की श्रेणी में आते रहे है। प्रकाशित होते रहते हैं और जिन अपवादों को छपाने के फिर लेखक की उक्त पतें तो जन्मन: दिगम्बर मात्र होने लिए हम कथित उपगृहन अग (?) पालन कर अपनी जैसी शर्त से कहीं अधिक दृढ है और मर्वथा धर्मानुकूल सन्तान की उपस्थिति मे-उन त्यागियो को भक्ति, सेवा भी। खैर, बागे आगे देखि होता है क्या।' में उनके पीछे दौडें लगाते रहते है। क्या हमने कभी सोचा है कि हमारी भावी पीढ़ी के कि क्या हम ऐसे ऐगेही उस दिन एक सज्जन पूछने लगे --'आज कल त्यागियो के ही आदर्श छोड एंग? कही ऐसा न हो कि श्रेष्ठ और भ्रष्ट दोनो पकार के त्यागियो वी चर्चा हमारी करनी से हमारे त्यागियो- गृमओ का रूप ही सामाजिक पत्रो मे पढने को मिलती है तो आप हमे बदल जाए और सतान कहे कि हमारे गुरुयो का सच्चा रूप बताइये कि चचित किन्ही भ्रष्ट त्यागियो को आहार देना। गही होता है और इस रूप को ही हमारे पूर्व न अपनाते चाहिए या नही ? हमने कहा भ्रष्ट तो माधारण श्रावको रहे है-परिग्रही, सग्रही और आडम्बरी। ऐसे में हम मे भी है और त्यागियो मे में है -आप त्यागियो को ही स्वय ही सच्चे गुरु के स्वरूप के ला का पाप अपन सिर दोष क्यो देते है ? हम तो पद के अनुकूल क्रिया न पालने लगे और धर्म मार्ग का ह्रास होगा सो अलग से । वालो को भ्रष्ट ही मानते है, फिर चाहे वे साधारण नियमधारीधावक हों या पूर्ण त्यागी। पर, जहाँ तक ऐसे ही पहिले जब 'अकिचित्कर' पुस्तक निकली थी आहार देने और न देने की बात है, हम तो 'आहारमात्र (जो आज भी विद्वानो मे विवादस्थ है) तब हमने सकेन प्रदानेतु का परीक्षा के .नुयायी है और सभी को आहार दिया था कि - विद्वदगम्य गूढ चर्ग को जन-माधारण में देने के पक्ष मे है। यदि पात्र योग्य है तो दाता का प्रचारित करने से तो जनमाधारण मिथ्यात्व को अकिंचित्कल्याण है और पात्र अयोग्य है तब भी दाना का कल्याण कर मानकर पद्मावती आदि देवियों को पूजने लगेगा। इसलिए है कि वह परिग्रह के भार से तो हल्का हो ही जाता वह बात अब साकार फलित होने लगी है बीतराग मार्ग है-उसका द्रव्य तो किमी के काम आ ही जाता है। का अवलम्बन लेने वाले साधु नक अब राग धिनी प्रवृत्ति स्मरण रहे कि हमारे कमाए द्रव्य में हमारे अनजाने में के प्रचार में लग गये हैं। अभी हमे गणधराचार्य पदवीऐसा भी द्रव्य आ जाता है, जो न्यायोचित श्रगा मे घर थी कुन्दसागर जा ति .६६ पंजी पुस्तक 'नवसम्मिलित न हो-ऐम। द्रव्य सहज मे इसी बहाने निकल रात्रि पूजाविधान' (पमानती शुक्रवार व्रत उद्यापन) जाता हो। लोग भी ऐसा ही मानते है कि न्याय की मिली है। इसमें अष्टद्रव्यो से पद्मावती-पूजा का विधान कमाई सतणत्र को जाती है और अन्याय की असत्कार्य है और पपावती के सहस्रनाम गिनाकर उन्हे पृथक-पृथक में। दाता दोनों भाति ह. पापमुक्त होता है। इसलिए अर्घ्य है। पुस्तक छन्दो में है। जैसे जनता नवरात्रि के आहार देना चाहिए । हो, विधि विचारणीय हो सकती दिनो में अन्य देवियो को पूजते है, वैसे जैनी उन दिनो पद्मावती को पूजेगे और वीतरागी की महिमा का ह्रास
SR No.538046
Book TitleAnekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1993
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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