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के अवसर प्राप्त हुए। हमने इनमें जो प्रेम और सङ्गठन पाया है, उसकी मिसाल हूँढने पर मुश्किल से मिल सकेगी।
उर्दू भाषा में धार्मिक ग्रन्थों की कमी अनुभव करते हुए श्री दिगम्बरदास जी ने बड़ी मेहनत के बाद रत्नकरण्ड श्रावकाचार का सार सरल उर्दू में "जैन-गृहस्य" नाम से किया और इस ६० पृष्ठों की पुस्तक को हजारों की संख्या में बिना मूल्य बाँट कर उर्दू भाषियों को धर्म लाभ का शुभ अवसर दिया । काँधला जिला मुजफरनगर के रईस लाला मूलचन्द मुरारीलाल तो इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इन्हें एक ऐसी पुस्तक लिखने की प्रेरणा की, जिससे उनका संसारी मोह-ममता मिट कर सतोषरूपी लक्ष्मी प्राप्त हो सके तो इन्होंने अनेक कार्यों में व्यस्त रहने के बावजूद भी “दुखी संसार” नाम की पुस्तक लिखकर उन्हें भेंट की, जिसका उन्होंने इतना अधिक पसन्द किया कि जनता के लाभार्थ उसे अपनी ओर से छपवाकर मुफ्त बाँटा ।
आपको तीर्थ स्थानों से भी बड़ा प्रेम है । २४ दिसम्बर १६३६ को श्राप श्री सम्मेदशिखर जी की यात्रा को गये थे और १४ जनवरी १६३७ को वापिस सहारनपुर लौटे। इस २२ दिन के थोड़े से समय में आपने आरा, धनपुरा, पटना, श्री सम्मेदशिखर जी, पालगंज, कलकत्ता, भागलपुर, चम्पापुरी, नाथनगर, मन्दारगिर, गुणयाँ, पावाँपुर, कुण्डलपुर, नालिन्दा, राजगिरि, निवादा, रिहार, काशीजी, चन्द्रवटी, सारनाथ, अयोध्या जी तथा लखनऊ २२ स्थानों की यात्रा की। तीर्थ स्थानों के सुधार और यात्रियों को हर मुमकिन सहूलियत दिलाने के लिये आप वहाँ के प्रबन्धकों से मिले । इनकी यात्रा के हालात दूसरे यात्रियों की जानकारी के लिये ८ फरवरी १६३७ के जैन संसार, देहली में छप चुके हैं।
श्री शिखरं जी की यात्रा के अवसर पर श्री पार्श्वनाथ जी के ३६ ]
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