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"विषम संसार छोड़ चले उन परम वीतरागी पुरुषोंको नमस्कार! वीतरागी मुनियोंके चरणारविन्दमें हमारे सविनय भक्तिभावसे नमस्कार प्राप्त हों। परम वीतरागी पुरुषोंकी कृपासे ज्ञान(ज्ञानी)की उपासना करते हुए देहकी ममताका त्याग होनेके कारण आत्मानन्दमें झूलनेवाले और पारमार्थिक दृष्टिसे भविकजीवोंपर निःस्पृह करुणा करनेवाले आप आनन्दपूर्वक बिराजमान हैं यह जाननेकी जीवकी निरन्तर इच्छा है।
सद्गुरुदेवके अमृतमय वचनका पान कर जिनका वचन वीतरागी भावको प्राप्त हुआ है, भक्ति करके जिनकी काया वीतरागी भावको प्राप्त हुई है, निरन्तर स्मरणसे जिनका मन वीतरागी भावको प्राप्त हुआ है और सद्गुरु मुखसे लोकका स्वरूप समझकर जो आत्मभावमें रमण कर रहे हैं, वैसे महामुनियोंका स्वरूप हमारे हृदयमें सदैव विद्यमान रहे । संसारके प्रवाहमें बहते, भवाटवीमें भटकते इस रंक जीवके उद्धारके लिए महामुनियोंका इस ओर पदार्पण हो ऐसी इस जीवकी निरन्तर विनती है। परम सत्पुरुषकी कृपासे यहाँ शान्ति है। उन सत्पुरुषको हमारा परम परम भक्तिभावसे नमस्कार हो! उन महान वीतरागी गुरुदेवके चरण हमारे हृदयके हृदयमें सदैव स्थापित रहें! उन परम पुरुष महावीरकी चरणशरण और स्मरण ही सदैव आपको और हमें प्राप्त हो!
चारों गतिमें नहीं जानेका मानो दृढ़ संकल्प कर लिया हो ऐसी प्रगाढ ध्यानमुद्राको धारण करते हुए, आत्मस्वरूपमें वृत्तिको लीन करते हुए, आत्मस्थ हुए महान मुनियोंको बारंबार नमस्कार हो!
प्रचण्ड वीतरागता धारण करते, क्षमारूपी खड्गको धारण कर कषायरूपी जगतमें उथलपुथल करके मानो जगतमेंसे कषायको निर्मूल करनेके लिए ही मौन ग्रहण कर ज्ञानीकी चरणशरण ले रहे हैं। मोक्षनगरीको प्राप्त करनेके लिए महावीर पुरुषके समान संयमके सर्व शस्त्रोंसे सज्ज होते हुए, आत्मज्योतिको प्रकाशित करते, सर्व विभावको प्रज्वलित कर, इन्द्रियोंको संकोच कर पद्मासनसे दृढ़ वृत्ति-अंतर्दृष्टि कर चैतन्य-आनंदमें निमग्न होनेवाले मुनियोंको बारंबार नमस्कार हो! नमस्कार हो!"
श्रीमद्जीके देहोत्सर्गके पश्चात् 'मुंबई समाचार में प्रकाशित करवानेके लिए तैयार की गयी या प्रकाशित हो चुकी श्री लल्लजी तथा श्री देवकरणजी आदि मुनियोंके द्वारा या उनके नामसे किसी मुमुक्षु द्वारा की गयी विनती विज्ञप्तिके रूपमें लिखी गयी थी, वह श्री लल्लजीके संग्रहीत पत्रोंमेंसे मिली है जो निम्नलिखित है। उस परसे, श्रीमद्का देहोत्सर्ग हुआ उसी अरसेमें ज्ञानमन्दिर या आश्रमकी योजना अमुक भक्तवर्गमें स्फुरित थी ऐसा प्रतीत होता है। सं.१९५८में श्री देवकरणजीके देहावसानके पूर्व यह लिखी गयी लगती है
"श्रीमद् राजचंद्र ज्ञानमंदिर स्थापन करनेकी जैन मुनियों द्वारा की गयी विनती माननीय मुंबई समाचारके अधिपति जोग, श्रीमान्,
मुनिश्री लल्लुजी, मुनिश्री देवकरणजी आदि जैन मुनियोंने निम्न विचार प्रदर्शित किया है उसे आपके प्रसिद्ध पत्रमें प्रकाशित करनेकी कृपा करेंगे।
भगवान महावीर-प्रतिपादित वीतरागमार्गकी स्थायी स्थितिमें उनके निर्वाणके पश्चात् क्रमशः
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