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भगवानको आंगी, मुकुट आदि पहनाया।" फिर मंदिरके बाहर आकर मुनियोंसे कहा, "मुनियो! बाहर दृष्टि करोगे तो विक्षेपकी कोई सीमा नहीं है, अतः अन्तर्दृष्टि करें।"
अहमदाबादसे श्रीमद्जी ईडरकी ओर पधारे और श्री लल्लजी आदिने थोड़े दिन बाद नरोडाकी ओर विहार किया। ईडरसे श्रीमद्जी पत्र नरोडा आया कि वे कल नरोडा पहुँच रहे हैं। अहमदाबादसे मुमुक्षुभाई भी नरोडा आये थे। बारह बजे श्री लल्लजी आदि मुनियोंको निवृत्तिस्थान जंगलमें आनेके लिए श्रीमद्जीने समाचार भिजवाया। मुनि उपाश्रयसे गाँवकी सीमा तक पहुँचे तब श्रीमद्जी आदि भी वहाँ प्रतीक्षा करते खड़े थे। ग्रीष्मऋतुकी गर्मीसे जमीन बहुत तप गयी थी। परंतु 'साधुओंके पाँव जलते होंगे' ऐसा कहकर श्रीमदजीने अपने जूते (स्लीपर) निकाल दिये और दूर वटवृक्ष तक गज-गतिसे नंगे पैर चले । साधु छायामें पहुँचनेके लिए त्वरित गतिसे चल रहे थे जबकि वे स्वयं बिना घबराये, गर्मीकी कुछ भी चिंता किये बिना, शांतिसे चल रहे थे। गाँवके लोग भी बातें करने लगे कि श्री देवकरणजी महाराज कहते थे कि ये ज्ञानी पुरुष हैं, यह बात सत्य है।
वटवृक्षके नीचे श्रीमद्जी बैठे और उनके सामने छहों मुनि नमस्कार कर बैठ गये। श्रीमद्जीके पैरोंके तलवे लालसूर्ख हो गये थे पर उन्होंने पाँवपर हाथ तक नहीं फेरा। श्री देवकरणजीकी ओर देखकर उन्होंने कहा, "अब हम बिलकुल असंग होना चाहते हैं। किसीके परिचयमें आना अच्छा नहीं लगता। ऐसी संयमश्रेणी में आत्मा रहना चाहता है।" श्री देवकरणजीने प्रश्न किया, "ज्ञानीपुरुषकी जो अनन्त दया है वह कहाँ जायेगी?" उत्तरमें श्रीमद्जीने कहा, “अंतमें इसे भी छोड़ना है।" फिर श्रीमद्जीने पूछा, “स्थानकवासी लोग आपको विक्षेप करते हैं इसका क्या कारण है?" श्री देवकरणजीने कहा, "आपका चित्रपट हमारे पास रहता है वह उन्हें अखरता है।" श्रीमद्जीने कहा, “इसी कारण हमने आपको चित्रपट रखनेकी आज्ञा नहीं दी थी। ज्ञानीकी आज्ञा पूर्वापर अविरोध होती है। आपने अपनी इच्छासे चित्रपट अपने पास रखे थे अब उसका त्याग कर दो। दिगम्बर पुस्तक 'योगप्रदीप' नामक है वह आपको भेजेंगे, उसपर बारंबार विचार करना।"
सं.१९५६का चातुर्मास श्री लल्लजीस्वामीने सोजित्रा सोनीकी धर्मशालामें किया था। वहाँ दिगंबर भट्टाचार्यके साथ उनका समागम हुआ। स्थानकवासी वेश होनेपर भी संघाडेसे अलग होनेके बाद स्थानकवासियोंसे अधिक परिचय न करना पड़े ऐसे स्थानमें चातुर्मास करनेका विचार रखा था।
सोजित्रामें चातुर्मास पूरा होनेपर श्री लल्लजी आदिको पत्रसे समाचार मिला कि श्रीमद्जी अहमदाबाद पधारे हैं। श्री देवकरणजीको भी ये समाचार मिल गये थे अतः सभी मुनि विहार कर अहमदाबाद आ गये। श्री लल्लजीको मार्गमें बुखार आता था जिससे उनके उपकरण श्री मोहनलालजीने उठा लिये; एक पुस्तक उनके पास थी उसे उनके साथके मुनि नरसीरखको उठा लेनी चाहिए थी ऐसा श्री मोहनलालजीको लगा अतः उन्होंने यह बात अहमदाबादमें श्री देवकरणजीसे कही। इसपरसे श्री देवकरणजीने नरसीरखको उलाहना दिया, पर उनका पक्ष लेकर नरसीरखके साथी दूसरे मुनिने श्री देवकरणजीकी अवज्ञा की। श्रीमद्से यह बात किसीने नहीं कही। परंतु सभी मुनि जब श्रीमद्जीके दर्शन करने आगाखानके बंगलेपर गये तब बातचीतके प्रसंगमें श्रीमद्जीने कहा, "मुनियों! इस जीवने स्त्री-पुत्रादिके भार सहे हैं, किन्तु सत्पुरुषोंकी या धर्मात्माकी सेवाभक्ति प्रमादरहित होकर नहीं की है।" यों कहकर लक्ष्मीचंदजी मुनिको आज्ञा दी
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