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[ ३२ ] आत्मभावका लक्ष्य रखकर रहना योग्य है... क्वचित् आप ऐसा मानते हों कि जो लोग असंभव बात कहते हैं उन लोगोंके मनमें अपनी भूल दिखायी देगी और धर्मकी हानि होनेसे रुकेगी, तो यह एक हेतु ठीक है... पर एक बार तो अविषमभावसे वह बात सहनकर अनुक्रमसे स्वाभाविक विहार करते करते ऐसे क्षेत्रमें जाना हो और कुछ लोगोंको संदेह हो वह निवृत्त हो सके वैसा करना चाहिए, किन्तु रागदृष्टिवालोंके वचनोंकी प्रेरणासे तथा मानकी रक्षाके लिए अथवा अविषमता न रहनेसे लोगोंकी भूल मिटानेका निमित्त मानना आत्महितकारी नहीं है । "
श्री लल्लुजी सं.१९५४ के पौष मासमें लिखते हैं- “ श्री वसो क्षेत्रमें मुनिश्री भाणजीस्वामीका समागम हुआ, उनके साथ अविषमभावसे- समाधिपूर्वक बातचीत हुई अतः उन्होंने भी कहा कि, आप सुखपूर्वक इस क्षेत्रमें विचरण करें और हम भी इस समय श्री अहमदाबाद क्षेत्रमें नहीं जायेंगे, ऐसा कहकर समतासे कषायरहित समागम कर, श्री खेडा पधारे हैं ।"
सं. १९५५ चैत्र सुदी ५के पत्रमें श्री लल्लुजी श्रीमद्को लिखते हैं- “ऐसा लगता है कि मुनि छगनजीका चातुर्मास खंभात होगा, पर मुनि देवकरणजी (कच्छसे) आयें और परिवर्तन करना पड़े तो वह सुविधा भी संभव है । कुछ विषम नहीं होगा... आज मुनि भाणजीरखका पत्र आयेगा ।” फिर श्री लल्लुजीने नडियाद चातुर्मास किया और श्री देवकरणजीने वसोमें चातुर्मास किया ।
सं. १९५५के चातुर्मासके बाद श्री लल्लुजी आदि मुनियोंको खंभातके संघाडेसे बाहर कर दिया था फिर भी प्रतिपक्षके साथका संबंध बिलकुल छूट गया हो और एक दूसरेके प्रति द्वेषभाव न रहा हो ऐसा उपरोक्त पत्रोंके अवतरणसे स्पष्ट होता है । संघाडेमें समान दो भाग होनेपर भी पुस्तक पन्ने आदिके लिए किसी भी प्रकारकी माँग या तकरार श्री लल्लुजी आदि मुनियोंकी ओरसे नहीं हुई, उनकी इस उदारता और निःस्पृहताकी छाप सभी साधुओंपर पड़ी । कषायकी वृद्धि हो ऐसे निमित्तोंमें भी श्रीमद्जीके उपदेशसे और श्री लल्लुजी आदि मुनियोंकी आज्ञाकारी वृत्तिसे मानो कुछ हुआ ही न हो ऐसा मानकर उनके संबंधसे अलग होकर वे आत्महितमें ही तल्लीन रहने लगे ।
इसी अरसेमें भाई श्री अंबालाल एक पत्रमें सुंदर विचार प्रदर्शित करते हैं
“ऐसे लौकिक उदयसे मनको संकुचित नहीं करते हुए महामुनि आनंदमें रहते हैं और निम्नानुसार परमार्थका विचार करते हैं
असत्संग दूर होगा, सारे संसारका ममत्व छोड़ा था, किन्तु उसमें इस उपाधिवाले संघाडेके कारण कुछ चिपक गया था वह सहज ही छूट गया, यह परम कृपा श्रीसद्गुरुकी है। अब तो है जीव ! तेरा गच्छ, तेरा मत, तेरा संघाडा बहुत बड़ा हो गया है - चौदह राजलोक जितना हो गया है। षड्दर्शन पर समभाव और मैत्री रखकर निर्ममत्वभावसे, वीतरागभावसे आत्मसाधनाका अधिक अवकाश प्राप्त हुआ है ।
जिसकी वृत्ति अंदर आत्मभावमें उतरती जाती है उसे क्षेत्र, काल, द्रव्य, भाव कुछ भी विघ्नकारक नहीं होते...निर्मल जल खारे समुद्रमें मिलकर शांत रहना नहीं चाहता पर सूर्यकी गर्मी के योगसे बाष्प बनकर, बादलरूप होकर संसारको अमृतमय बनानेके लिए सर्व स्थानोंपर गिरता है । इसी प्रकार आप जैसे महामुनि सत् ऐसे परम स्वरूपको जाननेसे निर्मल जलरूप बनकर सारे
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