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श्रमणविद्या- ३.
करने वाले को मङ्गल का विधान करना चाहिए। यदि कहीं मंगल का विधिपूर्वक अनुष्ठान किए जाने पर भी ग्रन्थ की विर्विघ्न समाप्ति नहीं होती है तो वहाँ विघ्नों की प्रचुरता माननी चाहिए, उसके लिए जितना मङ्गल अपेक्षित था, वह वहाँ नहीं किया जा सका । किञ्च जहाँ नास्तिकों के ग्रन्थों में मङ्गलाचरण का विधान न होने पर भी ग्रन्थ समाप्ति रूप फल देखा जाता है, वहाँ विघ्नों का अभाव, पूर्वजन्मजन्य मङ्गल आदि की परिकल्पना या अनुमान कर लेना चाहिए । ऐसी नवीनाचार्यों की मान्यता है ।
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कुछ आचार्यों की अवधारणा है कि ग्रन्थादि की समाप्ति पुरुषार्थ का फल है, मङ्गल का फल विघ्नविध्वंस नहीं है— 'समाप्तिरेव सुखसाधनतया पुरुषार्थत्वात्फलं, न तु विघ्नध्वंसो मङ्गलस्य फलम्, तस्यापुरुषार्थत्वात् इति' (वै.उ. १ । १ । १) ।
संस्कृत वाङ्मय के आचार्यों ने ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए शिष्टों के आचरण के अनुरुप मङ्गल का विधान किया है। आचार्यों ने तीन प्रकार के मङ्गल का निर्देश किया है— 'आशीर्वादात्मक, नमस्कारात्मक वस्तुनिर्देशात्मक—
तथा
आशीर्वादनमस्कार वस्तुनिर्देशभेदतः ।
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मङ्गलं त्रिविधं प्रोक्तं शास्त्रादीनां मुखादिषु ।।
आशीर्वादात्मक मङ्गल उसे कहा जाता है जिसमें कवि ईश्वर से यह अभ्यर्थना करता है कि वे आप सवों की रक्षा करें
जम्भारिमौलिमन्दारमालिकमधुचुम्बिनः ।
पिनेयुरन्तरायाब्धिं हेरम्बपदपांसवः ।। (कुन्दमाला १।१)
जम्भदैत्य के शत्रु इन्द्र के मुकुट की मान्दारमालिका के मधुमकरन्द का पान करने वाले हेरम्ब ( गणेश) के पद- पांसु विघ्न के समुद्र का पान करें । यहाँ देवतासंस्मरणात्मक एवं आशीर्वचनात्मक मङ्गल है ।
नमस्कारात्मक मंङ्गल वहाँ होता है जहाँ कवि विघ्नों के व्यूहोपशम के लिए ईश्वर का नमन करता है
१. आचरियानं गन्थारम्भो तिविधो - आसिसपुब्बको, वत्थुपुब्बकोपणामपुब्बकोति । सङ्क्षेप, पि. २१४; आचरियो पञ्चगुणे बड्नेन्तो ताव रत्नत्तयपणाममारभते रतनत्तयपणामेन हि आचरियस्स अन्तरायाभावो, तदभावेन च आयुवष्णसुखबलपटिभानसङ्घातापञ्चगुणा बन्ति तब्बड्डनेन च कारियसन्निट्ठानंति । मणि.पि. १ 1
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