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कोमलता का भाव न मन में, फिर क्या सुन्दरता से तन में,
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सत्य हरिश्चन्द्र
गीत
दया विन बावरिया, हीरा जन्म गँवाये, कि पत्थर से दिल को, क्यों ना फूल बनाये ॥
दीन दुखी की सेवा कर ले, पाप - कालिमा अपनी हर ले,
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धन - लक्ष्मी का गर्व न करना, आखिर तो सब तजकर मरना,
यह जीवन है पाप पुण्य हैं शेष
जीवन
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तिहुँ जग मंगल गाये ॥
एक कहानी, निशानी,
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विष बरसाये ॥
परहित क्यों न लुटाये ॥
'अमर' सत्य समझाये !
राजा ने देखा तो मानस हुआ हर्ष से परि पूरित, बोले मंत्रीश्वर से " अपना कार्य कीजिए अब प्रमुदित |
सम्राज्ञी के सिंहासन का आज प्रश्न हल होता है, रूपोचित सत्कार्य हृदय में बीज प्रेम का बोता है ।
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अगर व्याह करना है तो बस इसी नृपति - सुकुमारी से, वर्ना तो आजन्म रहेंगे हरिश्चन्द्र ब्रह्मचारी से || "
मंत्री ने झट जाकर नृप से करी प्रार्थना हर्षित हो, स्वीकृत, निश्चित, विहित प्रणयकृत हुआ सभी सु-स्थिर चित हो ।
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