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सत्य हरिश्चन्द्र
दुख आप वन में भोगते, मैं महल में सुखी रहूँ,
यह खुल रहा है नरक का मेरे लिये तो द्वार है। मुझ पै न रोष लाइये, बस शीघ्र लौट आइये
जीवन कहाँ है, कण्ठ पैगम की फिरी कटार है ।।
रानी के दुःखित अन्तर में लगी उमड़ने शोक-घटा, मूर्छा खाकर पड़ी भूमि पर जैसे जड़ से वृक्ष कटा। सखी मल्लिका समझाती थी वह भी सब सुध - बुध भूली, क्या कुछ करे, कराये ? कुछ भी समझ न पाई मति फूली। लता - कुज की ओट अयोध्यापति भी आकुल - व्याकुल थे, रानी का लख स्नेह निसर्गज, प्रेमभाव में विह्वल थे ! ज्यों ही देखी मूच्छित रानी सहसा अन्दर को धाये, अंचल से कर शीघ्र हवा, जल छिड़क चेतना में लाये । पति को सम्मुख लख रानी के नहीं हर्ष का पार रहा, नेत्र - युगल से अश्रु - रूप में झर - झर प्रेम - प्रवाह बहा ! पति के चरणों में वन्दन कर पूछी वनगत सुख साता, गद्गद् होकर हरिश्चन्द्र भी बोले कौशल के नाता । "मेरी क्या चिन्ता, मैं तो हूँ चंगा वन में जाकर भी, पर तुमने क्या हाल बनाया, राजमहल के अन्दर भी ! दुर्बलता कितनी छाई है बनी दोज की चन्द्र - कला खान - पान की सुध-बुध भूलो, यह क्या चिन्ता-चक्र चला। समझदार होकर भी तुम तो बनी सर्वथा ही भोली, कुछ दिन के ही लिये गया था, इस पर यह काया डोली !" तारा हो प्रकृतिस्थ शीव्र ही सस्मित बोली मृदु वाणो, स्वच्छ हृदय-पट खोल रही है, कपट न रखती कल्याणी ।
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