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सत्य हरिश्चन्द्र
यह तो है अन्वया भयंकर राजा भी निर्वासित हों, स्वर्ण-महल के रहने वाले पद - पद घोर तिरस्कृत हों।" "तुम भी हो कौशल के वासो, राज्य - दान में दान किए, किस झठी भ्रमणा में फिरते, देने का अभिमान लिए । हरिश्चन्द्र यदि रहे यहाँ तो फिर मैंने क्या राज्य लिया, वह शासक क्या, जिसने अपना शासन नहीं स्वतंत्र किया। राज्य - दान दे चुका, बताओ, फिर कैसे वह रह सकता, सत्य - निष्ठ है हरिश्चन्द्र, क्या सत्य - भंग है कर सकता ? बुद्धि • भ्रष्ट तुम सोच न सकते, मैंने क्या अन्याय किया, अपराधी को दण्डित कर ऋषि-गौरव को अक्षुण्ण किया।" "यह कैसा है न्याय, वृथा ही भूपति को दुःख देते हैं, ऋषि मुनियों के उज्ज्वल यश को घोर कलंकित करते हैं। राजा अलग रहेंगे कुछ भी, दखल न देंगे शासन में, फिर क्यों हठ - वश अड़े हुए हैं, भूपति के निर्वासन में । जान गए हैं छुपा हुआ है, क्या निर्दय अन्तर मति में ? त्रस्त प्रजा को करना है बस, भूपति की अनुपस्थिति में । किन्तु समझ लें, सफल न होंगे, यह कौशल की जनता है, प्राणों से भी बढ़ कर उसको, न्याय - नीति की ममता है।" "रे असभ्य ! निर्लज्ज ! बोलने की भी तुमको बुद्धि नहीं, द्वष, दम्भ, दुष्कृति से दूषित अन्तर में अणु शुद्धि नहीं। निकलो बाहर, दुराग्रही हो, व्यर्थ कदाग्रह ठान रहे, ऋषियों से हठ करने का परिणाम न सुन्दर, ध्यान रहे ।"
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