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सत्य हरिश्चन्द्र उत्तर में ब्रह्मचारी बोले- "अरे मन, क्या कहता है ? श्रीगुरु का साम्राज्य अखिल है, किस दुनिया में रहता है ? शास्ता दिखलाकर हमको नीच!बनाता क्या लज्जित? अन्यायी भूपति को गुरु ने किया ब्रह्म - बल से दण्डित ! हरिश्चन्द्र के शासन में ही तुम स्वतंत्र रह सकते थे ? हम ऋषियों को मन चाही कटु-वाणी तुम कह सकते थे ? ' कौशिक गुरु ने आज राज्य का सूत्र स्वतंत्र सँभाला है, हम शिष्यों पर शासन का सब भार यथोचित डाला है ! आज हमीं कौशल - वैभव के एक मात्र हैं अधिकारी, मन - चाहे जैसे भवनों में रहें, मिली आज्ञा प्यारी !
खाली कर दो भव्य भवन, तुम लोग कहीं पर भी जाओ. हम ऋषियों के आगे अपनी व्यर्थ अकड़ मत दिखलाओ !"
धीरे - धीरे सभ्य नागरिक, लगे पहुंचने गांवों में, हरिश्चन्द्र को करते थे सव, याद प्रेम के भावों में । कौशिक ऋषि ने राज-सभा में पहुंच सचिव से कहा वचन, "आप समी अधिकारी सौंपें, मेरे शिष्यों को शासन !"
अधिकारी - गण ने कौशिक का पालन शीघ्र निर्देश किया, शासन-सूत्र सौंप सब ऋषि को रोज - सभा से कूच किया। कौशिक ऋषि को गर्व था कि-"मैं अच्छा शासन करलगा, जन्म-जात शासक हूँ, क्षण में ठीक व्यवस्था कर लगा !"
राज्य-भार जब पड़ा शीश पर शासन की कड़ियाँ उलझी, भूल गए पूर्वानुभूतियाँ तप - बल से न तनिक सुलभी।
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