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सत्य हरिश्चन्द्र
तारा को जब पता लगा तो मन में शोक उमड़ आया,
फिर भी दृढ़ होकर भूपति को धैर्य "नाथ ! विपद में कौन किसी का ?
भाव ही दिखलाया । दुनिया बड़ी दुरंगो है, विचित्र कुठगी है ।
धैर्य कीजिए, काल
चक्र की चाल
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संकट के दिन सदा न रहते, सुख के भी दिन आएँगे, काले बादल नभ में कब तक रवि का घेरा पाएँगे ? श्रेष्ठी का कुछ दोष नहीं है, भला हमें वह क्या जाने ? दीन - वेष को देख कौन जन-मन की प्रभुता को माने ?
जग में कहाँ किसी का परिचय बिना समादर होता है, वनेचरों के घर हीरों का नित्य निरादर होता है ।" तारा की श्रुति - मधुर उक्तियाँ सुनकर भूपति दुःख भूले, पति परायणा पत्नी का मृदु स्नेह भाव पाकर फूले ।
किन्तु अग्नि पर रखा दुग्ध उत्तप्त अतीव उबलता हो, जल के छीटों से कब तक के लिये शान्ति शीतलता हो ?
राजा की भी यही दशा है दिल में आग भड़कती है, ऊपर के मधु वचनों से वह शान्त कहाँ हो सकती है ? ज्यों-ज्यों अवधि निकट आती है, चिन्ता वेग प्रबल होता, शोक - सिन्धु में अचल साहसी भूपति भी खाता गोता ।
भोजन छूटा, निद्रा छूटी, चिन्ता से उन्मत्त हुआ, हँसी - दिल्लगी छूट गई सब, हृदय शोक संतप्त हुआ । तारा भी इस बार दूर पति की व्याकुलता कर न सकी, शून्य- लक्ष्य - सी बनी, आप ही साहस मन में भर न सकी । अन्धकार ही अन्धकार अब चारों ओर नजर आया, आशा की आभा का ढढे से भी चिन्ह नहीं पाया । राजमहल को तजने से भी धैर्य नहीं जो भंग हुआ, पति को चिन्ता - ग्रस्त देख, पर, आज रंग बदरंग हुआ ।
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बार-बार प्रभु के चरणों में दीन प्रार्थना करती है, कुछ रोदन से, कुछ चिन्तन से मन को हलका करती है ।
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