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सत्य हरिश्चन्द्र
अगर प्रथम ही कह देता तो फिर क्यों यह झगड़ा होता, वैभव - शाली राजमुकुट का खेल नहीं बिगड़ा होता ? मिथ्या आशा में इतने दिन व्यर्थ भ्रान्त चक्कर खाया, आज मिली निष्कृति, क्षत्रिय का धन्य भाग्य परिचय पाया। अरे सत्य की डींग हाँकते जरा न तुम शर्माते थे, इसी सत्य पर क्या बढ़-बढ़ कर उस दिन ऐंठ दिखाते थे ?" "भगवन् ! क्या कहते हैं ? इसमें कौन धूर्तता मेरी है ? सत्य परिस्थिति वर्णन कर दी, क्या जघन्यता मेरी है ? अगर कहो तो हृदय चीर कर दिखला दूं अपना तुमको, झूठ, दंभ, मिथ्या का अणु भी दाग न मिल सकता तुमको! हरिश्चन्द्र सब खो सकता है, सत्य नहीं वह खोएगा, सत्य - पूर्ति के लिए यंत्रणा कोटि - कोटि, शिर ढोएगा। अब भी क्या बिगड़ा है स्वामी पूर्ण तुम्हारा ऋण होगा, हरिश्चन्द्र कर सत्य - धर्म की रक्षा आज' अनृण होगा।" "रहने दे इन बातों में क्या रखा है, खाली हठ है, काल - चक्र शिर घुम रहा है, फिर भी कूद रहा शठ है। सत्य - वीरता का हाँ, अब भी नशा न मन से उतरा है, कौशिक के प्रलयंकर तप का क्या न तुझे कुछ खतरा है ? समझा क्या है तूने मुझको, बिगड़ा बहुत बुरा हूँ मैं, लल्लो - चप्पो मुझे न अच्छी लगती, स्पष्ट खरा हूं मैं । अगर चुकाया ऋण न आज तो तुम्हें भस्म कर दूंगा मैं, रवि के छुपते ही रवि - कुल का नाम खत्म कर दूंगा मैं।" कौशिक का मुख - मण्डल भीषण देख हुई कम्पित तारा, एक बार तो हुआ पूर्ण अवसन्न देह का बल सारा !
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