________________
सत्य हरिश्चन्द्र
१३६
वृद्ध विप्र का एक पुत्र था, नालायक - मक्कार बड़ा, वज्र मर्ख, अतिकामी, लंपट, हृदय पाप से मलिन - सड़ा ! बालकपन में लाड़ - प्यार में, खेला - कूदा, नहीं पढ़ा, युवक हुआ तो दुःसंगति में पड़, कुमार्ग की ओर बढ़ा । घम रहा था बाहर धक्के खाता, दुष्कृति का मारा, एक दिवस आ गया अचानक काल-मर्ति - सा हत्यारा । तारा को लख हुआ विमोहित-"अहा रूप कितना सुन्दर ! दासी क्या है स्वर्ग अप्सरा, मिला योग कितना सुन्दर !" सुन्दर अशन - वसन के द्वारा, ज्योंही चाहा फुसलाना, तारा थी विदुषी कब उसको, भला शक्य था बहकाना ? "मैं दासी, मुझको यह सुन्दर, भोजन - वस्त्र न भाता है, साधारण - सा रहन - सहन ही, शास्त्र हमें बतलाता है। दासी हैं हम, किन्तु हमें भी धर्म हमारा प्यारा है, पति-विहीन श्रृङ्गार हमें तो तीक्षण नग्न असि धारा है।" और अधिक क्या ? एक दिवस तो, स्पष्ट शब्द में फटकारा, समझ न पाया मूर्ख, और भी चढ़ा कुमति का सिर-पारा ! "दासी होकर फिर भी इतना, गर्व और गौरव रखती, गृह - स्वामी की अपने मन में नहीं तनिक परवा करती। देखूगा कब तक यह मुझको, अकड़ ऐंठ दिखलाएगी, बूढ़े ब्राह्मण का डर, वर्ना अभी अकड़ मिट जाएगी !" दिल में क्रोध बहुत ही आया, किंतु न बोला कुछ ऊपर, लगा सताने रानी - सुत को दुष्ट, नीच, क्रोधित होकर । बात - बात पर ऋद्ध, मष्ट हो, तारा को गाली देता, कभी - कभी वह रोहित पर भी मारपीट शठ कर लेता !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org