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सत्य हरिश्चन्द्र
सुख से, दुःख से किसी तरह से, मैंने तो आश्रय पाया, पता नहीं, तुम कहाँ किस तरह ? देव विकट तेरी माया। आधा ऋण था शेष, चुकाया गया कि किंवा नहीं गया, कौशिक, क्रोधी बड़बानल हैं, आती उनको नहीं दया । परम पिता, परमेश्वर ! मेरी ओर नहीं कुछ भी आशा, पति मेरे सानन्द रहें, बस यही एक है अभिलाषा !" इस प्रकार चिन्ता में घुलते • घुलते रात बिता दीनी. पलभर को भी नहीं सती ने आँखों में निद्रा लीनी। हृदय और मस्तिष्क तुम्हारा अगर काम कुछ देता है, पाठक, सोचो इस हालत में नींद कौन जन लेता है ? प्रातःकाल हुआ, प्राची में, दिव्य नभोमणि आ चमके, आलोकित हो उठा जगत् सब, फूलों के आनन दमके । अन्धकार तारा के दिल में, किन्तु और गहरा छाया, बाहर का आलोक, हृदय का तिमिर दूर कब कर पाया ? पर अपना कर्तव्य समझकर, जुटी काम में श्री तारा, झाडू चौका, बर्तन करके किया काम सुन्दर सारा । प्रथम दिवस में ही ब्राह्मण की पत्नी, को यों चकित किया, मिश्र और मिश्राणीजी का, खुलकर आशीर्वाद लिया। भोजन जब कर लेते सब जन, तब कुछ खाद्य - विरस पाती, रोहित को सस्नेह खिलाकर, शेष स्वल्प - सा खुद खाती। इसी तरह से धीरे - धीरे भूतकाल की स्मृति उज्ज्वल, लगे भूलते तारा - रोहित, समझ समय की गति चंचल । बीते कुछ दिन बड़ी शांति से किन्तु भाग्य में शांति कहाँ ? सत्यवती तारा के पीछे, एक भूत लग गया यहाँ !
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