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सत्य हरिश्चन्द्र
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एक मात्र लंगोट लगाये, अनघड़ दण्ड लिये कर में, रूप विरूप बना है कैसा ? फँसा कहाँ किस चक्कर में ? पाठक ! यह है वही अयोध्या - कौशल का अधिपति राजा, वजता था जिसके महलों पर नित्य मधुर मंगल बाजा । आज बने चाँडाल किस तरह करते मरघट - रखवाली, मात्र सत्य के कारण भूपति ने यह विपदा है पाली। धन्य - धन्य वे नर जग में, जो धर्म - हेतु संकट सहते, स्वर्ग - तुल्य सुख वैभव तजकर, सत्य-धर्म की जय कहते । हरिश्चन्द्र भावुक हैं फलतः प्रवल भावना - स्रोत बहा, मरघट के दृश्यों का भैरव घोष हृदय में गूंज रहा । "मानव - जीवन भी क्या जीवन ? क्षण भंगुर है, चंचल है, अमल कमल के दल पर जल-कण परिकंपित हाँ, पल-पल है। स्वर्णासन पर बैठ मनुज क्या अपनी अकड़ दिखाता है ? विश्व विजय कर दूर - दूर तक अपनी जय गुंजाता है । पल भर में सब नक्शा बदला, पड़ी विकट यम की छाया, चला न कुछ भी जोर चिता पर, बनी भस्म जल कर काया । बड़े - वड़े बल वीरों के अब, निशाँ कहाँ जग में बाकी, मरघट में सब लुप्त पड़ी हैं, उनकी वह बाँकी - झाँको । पुष्प - भार जो सह न सके थे, आज लक्कड़ों के नीचे, ज्वालाओं में झुलस रहे हैं नेत्र - कमल अपने मींचे।"
गीत
मन मूरख ! क्यों दीवाना है,
जग सपना क्या गरवाना है ?
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