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सत्य हरिश्चन्द्र
कौशिक ऋषिवर, आज प्रेम को, मूर्ति बने सम्मुख आए, राजा - रानी ने वन्दन कर, सिंहासन पर बिठलाए ।
" राजन् ! सत्य - धर्म की अद्भुत महिमा तुमने दिखलाई, अग्नि परीक्षा में भी तुम पर, जरा नहीं कालिख आई ! कौन सत्य के लिए तुम्हारे, जैसा संकट सह सकता ? सुत वियोग से वज्रपात पर कौन धीर दृढ़ रह सकता ?
कैसा अद्भुत त्याग ? राजसी वैभव पल भर में छोड़ा, कैसा उज्ज्वल सत्य ? प्रिया को, कफन न सुत का भी छोड़ा, विश्वामित्र अजेय शक्ति, पर, आज पराजित है तुम से, उच्छृङखल निज कर्तव्यों पर आज विलज्जित है तुमसे !
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मैं मूरख क्रोधान्ध बना क्यों ? क्यों तुमसे विग्रह, छेड़ा ? विग्रह क्या छेड़ा ? मुनि-पद का डुबा दिया अथ - इति ब्रेड़ा ! तुम अपूर्व विजयी, इस रण में पतन हुआ मेरा भारी, कहाँ साधुता का वह जीवन ? बना घोर पापाचारी ।
रोहिताश्व पर सर्प दंश की, माया भी मैंने डारी, बड़ा खेद है, तुम दोनों को, कष्ट दिया मैंने भारी । तुमने दिखा दिया त्रिभुवन को, जिसका धर्म सहायक हो, ध्वस्त न उसको कर सकता है, नायक हो !
कोई भी जग
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आज तपोबल, सत्य-शक्ति के सम्मुख शीश झुकाता है, क्षमा कीजिए, कौशिक अपनी, करणी पर पछताता है !" हरिश्चन्द्र ने हाथ जोड़ कर कहा - "प्रभो, यह क्या कहते ? आप धर्म की मूर्ति ऋषीवर, भला कभी दुष्पथ गहते ? सत्य-धर्म की करी परीक्षा, बड़ी कृपा की, हे भगवन् ! मिला तुम्हीं से मुझ सेवक को, यह सब गौरव मनभावन !
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